अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
अधि॒ द्वयो॑रदधा उ॒क्थ्यं वचो॑ य॒तस्रु॑चा मिथु॒ना या स॑प॒र्यतः॑। असं॑यत्तो व्र॒ते ते॑ क्षेति॒ पुष्य॑ति भ॒द्रा श॒क्तिर्यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । द्वयो॑: । अ॒द॒धा॒: । उ॒क्थ्य॑म् । वच॑: । य॒तऽस्रु॑चा। मि॒थु॒ना । या । स॒प॒र्यत॑: ॥ अस॑म्ऽयत्त: । व्र॒ते । ते॒ । क्षे॒ति॒ । पुष्य॑ति । भ॒द्रा । श॒क्ति: । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥२५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः। असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठअधि । द्वयो: । अदधा: । उक्थ्यम् । वच: । यतऽस्रुचा। मिथुना । या । सपर्यत: ॥ असम्ऽयत्त: । व्रते । ते । क्षेति । पुष्यति । भद्रा । शक्ति: । यजमानाय । सुन्वते ॥२५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(या मिथुना) जो पति-पत्नी (यतस्रुचा) यज्ञिय-स्रुच् पकड़ कर आहुतियों द्वारा (सपर्यतः) परमेश्वर की परिचर्या करते हैं, (द्वयोः अधि) उन दोनों में हे परमेश्वर! आप (उक्थ्यम्) वैदिक सूक्तरूपी (वचः) वचन अर्थात् मन्त्र (अदधाः) निहित कर देते हैं, अर्थात् वे वैदिक मन्त्रों द्वारा आपकी स्तुतियाँ करने लग जाते हैं। हे परमेश्वर! (ते) आपके दर्शाए (व्रते) व्रतों में (असंयत्तः) जो प्रयत्न नहीं करता, वह (क्षेति) क्षीण होता जाता है। और जो (ते) आपके दर्शाए (व्रते) व्रतों में (क्षेति) निवास करता है, अर्थात् तदनुकूल अपना जीवन बना लेता है, वह (पुष्यति) पुष्टि प्राप्त करता है। और उस (सुन्वते) भक्तिरसवाले (यजमानाय) यज्ञशील व्यक्ति को (भद्रा) सुखदायिनी और कल्याणकारिणी (शक्तिः) शक्ति प्राप्त होती है।
टिप्पणी -
[स्रुच्=यज्ञ का चमचा, जिसके द्वारा अग्नि में घृताहुति दी जाती है। असंयत्तः=अ+सम्+यत् (=प्रयत्ने)+क्त। क्षेति=क्षय; निवास।]