अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
आदङ्गि॑राः प्रथ॒मं द॑धिरे॒ वय॑ इ॒द्धाग्न॑यः॒ शम्या॒ ये सु॑कृ॒त्यया॑। सर्वं॑ प॒णेः सम॑विन्दन्त॒ भोज॑न॒मश्वा॑वन्तं॒ गोम॑न्त॒मा प॒शुं नरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । अङ्गि॑रा: । प्र॒थ॒मम् । द॒धि॒रे॒ । वय॑: । इ॒द्धऽअ॑ग्नय: । शम्या॑ । ये । सु॒ऽकृ॒त्यया॑ ॥ सर्व॑म् । प॒णे: । सम् । अ॒वि॒न्द॒न्त॒ । भोज॑नम् । अश्व॑ऽवन्तम् । गोऽम॑न्तम् । आ । प॒शुम् । नर॑: ॥२५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
आदङ्गिराः प्रथमं दधिरे वय इद्धाग्नयः शम्या ये सुकृत्यया। सर्वं पणेः समविन्दन्त भोजनमश्वावन्तं गोमन्तमा पशुं नरः ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । अङ्गिरा: । प्रथमम् । दधिरे । वय: । इद्धऽअग्नय: । शम्या । ये । सुऽकृत्यया ॥ सर्वम् । पणे: । सम् । अविन्दन्त । भोजनम् । अश्वऽवन्तम् । गोऽमन्तम् । आ । पशुम् । नर: ॥२५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(आत्) तदनन्तर अर्थात् सुखदायिनी और कल्याणकारिणी शक्ति को प्राप्त करके (अङ्गिराः) प्राणायामाभ्यासी (नरः) उपासक-नेताओं ने (प्रथमं वयः) सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक अन्न अर्थात् परमेश्वर को (दधिरे) योगविधि द्वारा धारण किया। (ये) जिन्होंने कि (शम्या सुकृत्यया) योगविधि की शान्तिप्रद उत्तम क्रियाओं द्वारा (इद्धाग्नयः) परमेश्वरीय-ज्योति को प्रदीप्त किया। मानो उन अभ्यासियों ने (पणेः) वेदवक्ता परमेश्वर से (सर्वं भोजनम्) सब प्रकार के भोजन (अश्वावन्तम्) अश्वों समेत तथा (गोमन्तम्) गौओं समेत, और (पशुम्) सब प्रकार की पशु-सम्पत्ति को (सम् अविन्दन्त) प्राप्त कर लिया। अर्थात् परमेश्वरीय ज्योति प्राप्त होने पर सब कुछ प्राप्त हो गया।
टिप्पणी -
[वयः=अन्नम् (निघं০ २.७)। परमेश्वर आध्यात्मिक अन्न है, जिसे पाकर आत्मा तृप्त हो जाती है। कहा है कि ‘अहमन्नम्, अहमन्नादः’ (तै০ उप০ ३.१०.६), परमेश्वर कहता है कि ‘मैं अन्न हूँ, और मैं अन्नाद भी हूँ। उपासकों के लिए परमेश्वर ‘अन्न’ है। प्रलय में सबको अन्तर्लीन कर लेने पर वह ‘अन्नाद’ है। इसी प्रकार वेदान्त में परमेश्वर को ‘अत्ता’ कहा है। अत्ता चराचरग्रहणात् (वेदान्त १.२.९)। पणेः=पण स्तुतौ। प्रथमं वयः=अथवा वे सर्वश्रेष्ठ जीवन को धारण करते हैं।]