अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 9
स॒द्यश्चि॒न्नु ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरः॑ शंसन्त्युक्थ॒शास॑ उ॒क्था। ये ते॒ हवे॑भि॒र्वि प॒णीँरदा॑शन्न॒स्मान्वृ॑णीष्व॒ युज्या॑य॒ तस्मै॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒द्य: । चि॒त् । नु । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । पर॑: । शं॒स॒न्ति॒ । उ॒क्थ॒ऽशस॑: । उ॒क्था ॥ ये । ते॒ । हवे॑भि: । वि । प॒णीन् । अदा॑शन् । अ॒स्मात् । वृ॒णी॒ष्व॒ । युज्या॑य । तस्मै॑ ॥३७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सद्यश्चिन्नु ते मघवन्नभिष्टौ नरः शंसन्त्युक्थशास उक्था। ये ते हवेभिर्वि पणीँरदाशन्नस्मान्वृणीष्व युज्याय तस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठसद्य: । चित् । नु । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । पर: । शंसन्ति । उक्थऽशस: । उक्था ॥ ये । ते । हवेभि: । वि । पणीन् । अदाशन् । अस्मात् । वृणीष्व । युज्याय । तस्मै ॥३७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(मघवन्) हे धनपते! सांसारिक और आध्यात्मिक धन से स्वामी! (उक्थशासः) सूक्तों द्वारा स्तुतियाँ करनेवाले (नरः) उपासक नेता लोग, (सद्यः चित् नू) शीघ्र ही अर्थात् अल्पायु में ही, (ते अभिष्टौ) आपकी स्तुतियों के निमित्त, (उक्था=उक्थानि) वैदिक सूक्तों को (शंसन्ति) गायन करने लगते हैं। (ये ते) जो आपके हम उपासक, (हवेभिः) आह्वानपूर्वक, (पणीन्) स्तुतियाँ (वि अदाशन्) आपके प्रति समर्पित कर रहे हैं; उन (अस्मान्) हम उपासकों को, आप (वृणीष्व) वर लीजिए, स्वीकार कीजिए। ताकि (तस्मै) उस प्रसिद्ध (युज्याय) सायुज्य-मुक्ति को हम प्राप्त कर सकें।
टिप्पणी -
[पणीन्=पण् स्तुतौ। यथा—पणते, पणस्यति, पणायति, पणायते=अर्चतिकर्मा (निघं০ ३.१४)। अदाशन्=दाशृ दाने। वृणीष्व=यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः (कठ০ २.२३) अर्थात् परमेश्वर जिसे वर लेता है, वह उपासक परमेश्वर को पा लेता है। युज्याय=सायुज्याय, अर्थात् योगविधि द्वारा परमेश्वर के साथ योग अर्थात् सम्बन्ध प्राप्त कर लेना। यथा—“आत्मनात्मानमभि संविवेश” (यजुः০ ३२.११) ; अर्थात् जीवात्मा निज-आत्मस्वरूप से परमात्मा में प्रवेश पा जाता है। इस सायुज्य-मुक्ति का क्रम निम्नलिखित है। यथा—“तदपश्यत् तदभवत्, तदासीत्” (यजुः০ ३२.१२); अर्थात् योगी पहले परमात्मा का दर्शन पाता है, फिर उसके दर्शन में तद्रूप हो जाता है, तल्लीन हो जाता है, तदनन्तर उसमें चिरस्थित हो जाता है। आसीत्=सम्भवतः आसीत (आस् उपवेशने)। यह चिरस्थिति ही सायुज्य-मुक्ति है।