अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
त्वं धृ॑ष्णो धृष॒ता वी॒तह॑व्यं॒ प्रावो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑ सु॒दास॑म्। प्र पौरु॑कुत्सिं त्र॒सद॑स्युमावः॒ क्षेत्र॑साता वृत्र॒हत्ये॑षु पू॒रुम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । धृ॒ष॒ता । वी॒तऽह॑व्यम् । प्र । आ॒व॒: । विश्वा॑भि: । ऊ॒तिऽभि:॑ । सु॒ऽदास॑म् ॥ प्र । पौरु॑ऽकुत्सिम् । त्र॒सद॑स्युम् । आ॒व॒: । क्षेत्र॑ऽसा॒ता । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु । पू॒रुम् ॥३७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं धृष्णो धृषता वीतहव्यं प्रावो विश्वाभिरूतिभिः सुदासम्। प्र पौरुकुत्सिं त्रसदस्युमावः क्षेत्रसाता वृत्रहत्येषु पूरुम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । धृष्णो इति । धृषता । वीतऽहव्यम् । प्र । आव: । विश्वाभि: । ऊतिऽभि: । सुऽदासम् ॥ प्र । पौरुऽकुत्सिम् । त्रसदस्युम् । आव: । क्षेत्रऽसाता । वृत्रऽहत्येषु । पूरुम् ॥३७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(धृष्णो) पापों का धर्षण करनेवाले हे परमेश्वर! (त्वम्) आपने (धृषता) अपने धर्षण सामर्थ्य द्वारा (वीतहव्यम्) प्राकृतिक आहुतियाँ छोड़कर आत्म समर्पण की आहुतियाँ करनेवाले की (प्रावः) रक्षा की है, और (सुदासम्) उत्तम दानी की रक्षा (विश्वाभिः ऊतिभिः) सब प्रकार के रक्षासाधनों द्वारा की है। आपने (त्रसदस्युम्) उपक्षयकारी प्रवृत्तियों को मानो त्रस्त करनेवाले, भयभीत करनेवाले, (पौरुकुत्सिम्) पुरुकुत्स की सन्तान की (प्र आवः) रक्षा की है। तथा (क्षेत्रसाता=क्षेत्रसातौ) कर्मक्षेत्रशरीर परम्परा के विनाश के निमित्त जिसने (वृत्रहत्येषु) पाप-वृत्रों के हनन में (पूरुम्) पूर्ण सफलता प्राप्त की है, उसकी भी आपने रक्षा की है।
टिप्पणी -
[सुदासम्=सु+दासृ दाने। पुरुकुत्सः=नाना पापों की जड़ काटने वाला। कुत्स (मन्त्र २)। त्रसदस्युम्=त्रस्=त्रास, भय+दसु उपक्षये। क्षेत्रसाता=क्षेत्र (शरीर)+साति (विनाश)। पुरुम्=पृ पूरणे।]