अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 4
त्वं नृभि॑र्नृमणो दे॒ववी॑तौ॒ भूरी॑णि वृ॒त्रा ह॑र्यश्व हंसि। त्वं नि दस्युं॒ चुमु॑रिं॒ धुनिं॒ चास्वा॑पयो द॒भीत॑ये सु॒हन्तु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नृऽभि॑: । नृ॒ऽम॒न॒: । दे॒वऽवी॑ता। भूरी॑णि । वृ॒त्रा । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । हं॒सि॒ ॥ त्वम् । नि । दस्यु॑म् । चुमु॑रिम् । धुनि॑म् । च॒ । अस्वा॑पय: । द॒भीत॑ये । सु॒ऽहन्तु॑ ॥३७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नृभिर्नृमणो देववीतौ भूरीणि वृत्रा हर्यश्व हंसि। त्वं नि दस्युं चुमुरिं धुनिं चास्वापयो दभीतये सुहन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नृऽभि: । नृऽमन: । देवऽवीता। भूरीणि । वृत्रा । हरिऽअश्व । हंसि ॥ त्वम् । नि । दस्युम् । चुमुरिम् । धुनिम् । च । अस्वापय: । दभीतये । सुऽहन्तु ॥३७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(हर्यश्व) हे प्रत्याहार-सम्पन्न इन्द्रियाश्वों के स्वामी! (नृभिः) उपासक नेताओं द्वारा (देववीतौ) आप देव के प्रति आत्मसमर्पण कर देने पर, (त्वम्) आप उनके (भूरीणि) प्रभूत (वृत्रा) पाप-वृत्रों का (हंसि) हनन कर देते हैं, (नृमणः) क्योंकि उपासक-नेताओं के प्रति आपका मन, विचार, सदैव झुका रहता है। (दभीतये) दम्भ, छल कपट आदि दुर्भावनाओं से भीत उपासक के लिए, (त्वम्) आपने, (दस्युम्) उपक्षयकारी (सुहन्तु) तथा घातक (चुमुरिम्) डरपोकपन और (धुनिम्) अनवस्थिति के कारणों को (नि अस्वापयः) नितरां सुला दिया है।
टिप्पणी -
[“दभीति” पद द्वारा उपासक के “सात्त्विकभाव” को सूचित किया है। वह सत्याचारी है इसलिए दम्भ भावनाओं से रहित है। चुमुरि का अर्थ होता है “हिरन”। यह स्वभावतः डरपोक होता है। डरपोकपन तमोगुण का परिणाम है। इसलिए चुमुरि पद द्वारा “तमोगुण” को सूचित किया है। धुनि का अर्थ है कम्पन, अनवस्थिति, चित्त में स्थिरता का अभाव, चञ्चलता। इस द्वारा “रजोगुण” को सूचित किया है। “अस्वापयः” पद् द्वारा तमोगुण और रजोगुण को नितरां सुला देने का वर्णन किया है। ऐसी स्वप्नावस्था कि जिससे तमोगुण और रजोगुण पुनः जागरित न हो सकें। इस स्वप्नावस्था का वर्णन योगदर्शन में भी हुआ है। यथा—“अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्” (योग द০ २.४)। इसमें राग-द्वेष आदि वृत्तियों के प्रसुप्त हो जाने की अवस्था का वर्णन हुआ है। इन वृत्तियों की जागरित अवस्था को “उदार” कहा है।]