Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः। नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रियास॑: । इत् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । नर॑: । म॒दे॒म॒ । श॒र॒णे । सखा॑य: ॥ नि । तु॒र्वश॑म् । नि । याद्व॑म् । शि॒शी॒हि॒ । अ॒त‍ि॒थि॒ऽग्वाय॑ । शंस्य॑म् । क॒रि॒ष्यन् ॥३७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रियास: । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नर: । मदेम । शरणे । सखाय: ॥ नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अत‍िथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥३७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 8

    भाषार्थ -
    (मघवन्) हे धनपते! (ते) आपके (इत्) ही (प्रियासः) प्यारे बनकर, (अभिष्टौ) आपकी साक्षात् स्तुतियाँ करते हुए, (नरः) हम उपासक नर-नारियाँ, (सखायः) परस्पर सखा बनकर, (शरणे) आपकी शरण में (मदेम) आनन्दित रहें। (अतिथिग्वाय) अतिथिरूप में प्राप्त सद्गुरु की शरण में जानेवाले उपासक की (शंस्यम्) कीर्ति को (करिष्यन्) बढ़ाते हुए आपने, (तुर्वशम्) शीघ्र इन्द्रियों को वश में करनेवाले को—ऐसे उपासक के प्रति (निशिशीहि) शिष्यरूप में प्रदान किया है, और (याद्वम्) अभ्यासमार्ग में प्रयत्नशील व्यक्ति को भी (निशिशीहि) ऐसे उपासक के प्रति शिष्यरूप में प्रदान किया है। [अभिष्टौ=अभि+ष्टुञ् स्तुतौ।]

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top