अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब। गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । न॒: । सव॑ना । आ । ग॒हि॒ । सोम॑स्य । सोम॒ऽपा॒: । पि॒ब॒ ॥ गो॒ऽदा: । इत् । रे॒वत॑: । मद॑: ॥५७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब। गोदा इद्रेवतो मदः ॥
स्वर रहित पद पाठउप । न: । सवना । आ । गहि । सोमस्य । सोमऽपा: । पिब ॥ गोऽदा: । इत् । रेवत: । मद: ॥५७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सोमपाः) हे परमेश्वर! आप भक्तिरस चाहते हैं। (नः) हमारे (सवना) उपासना-यज्ञों में आप (उप आ गहि) हमारे हृदयस्थ हूजिए, और (सोमस्य) भक्तिरस को (पिब) स्वीकार कीजिए। (रेवतः) सब सम्पत्तियों के स्वामी आपकी (मदः) प्रसन्नता (गोदा इत्) हमें अवश्य ज्ञान प्रकाश देती है। [गो=किरणें प्रकाश+दा।]