अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 9
इन्द्र॑श्च मृ॒डया॑ति नो॒ न नः॑ प॒श्चाद॒घं न॑शत्। भ॒द्रं भ॑वाति नः पु॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । च॒ । मृलया॑ति । न॒: । न । न॒: । प॒श्चात् । अ॒घम् । न॒श॒त् ॥ भ॒द्रम् । भ॒वा॒ति॒ । न॒: । पु॒र: ॥५७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रश्च मृडयाति नो न नः पश्चादघं नशत्। भद्रं भवाति नः पुरः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । च । मृलयाति । न: । न । न: । पश्चात् । अघम् । नशत् ॥ भद्रम् । भवाति । न: । पुर: ॥५७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(च) और (इन्द्रः) परमेश्वर ही (नः) हमें (मृळयाति) सुख-सामग्री देता है। उसी की कृपा से (नः) हमें (पश्चात्) अनजाने भी (अघम्) पाप (न नशत्) नहीं प्राप्त होता। और उसी की कृपा से (नः) हमारे (पुराः) सामने सदा (भद्रं भवाति) सुख और कल्याण विराजता है, अर्थात् हमारी दृष्टि में सदा सुख और कल्याण का मार्ग रहता है।