अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 5
इ॑न्द्रि॒याणि॑ शतक्रतो॒ या ते॒ जने॑षु प॒ञ्चसु॑। इन्द्र॒ तानि॑ त॒ आ वृ॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒न्द्रि॒याणि॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । या । ते॒ । जने॑षु । प॒ञ्चऽसु॑ ॥ इन्द्र॑ । तानि॑ । ते॒ । आ । वृ॒णे॒ ॥५७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रियाणि शतक्रतो या ते जनेषु पञ्चसु। इन्द्र तानि त आ वृणे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रियाणि । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । या । ते । जनेषु । पञ्चऽसु ॥ इन्द्र । तानि । ते । आ । वृणे ॥५७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(शतक्रतो इन्द्र) हे सैकड़ों अद्भुत कर्मोंवाले परमेश्वर! (पञ्चसु जनेषु) पांच प्रकार के प्रजाजनों में, या विस्तृत अर्थात् पृथिवी पर फैले प्रजाजनों में, (ते) आपकी दी हुई (या) जो (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ हैं, वे स्वस्थ बनी रहें—यह मैं (ते) आपसे (आ वृणे) वर मांगता हूँ।
टिप्पणी -
[पञ्चजन=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, तथा निषाद (=वैदिक कर्मों से विहीन व्यक्ति)। अथवा पञ्च=पच् विस्तारे। [इन्द्रियाणि—जैसे प्रार्थना की है कि —“पश्येम शरदः शतम्, शृणुयाम शरदः शतम् प्रब्रवाम शरदः शतम्”।]