अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 4
शु॒ष्मिन्त॑मं न ऊ॒तये॑ द्यु॒म्निनं॑ पाहि॒ जागृ॑विम्। इन्द्र॒ सोमं॑ शतक्रतो ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ष्मिन्ऽत॑मम् । न॑: । ऊ॒तये॑ । द्यु॒म्निन॑म् । पा॒हि॒ । जागृ॑विम् ॥ इन्द्र॑ । सोम॑म् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो॒ ॥५७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
शुष्मिन्तमं न ऊतये द्युम्निनं पाहि जागृविम्। इन्द्र सोमं शतक्रतो ॥
स्वर रहित पद पाठयुष्मिन्ऽतमम् । न: । ऊतये । द्युम्निनम् । पाहि । जागृविम् ॥ इन्द्र । सोमम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥५७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(शतक्रतो) हे सैकड़ों अद्भुत कर्मोंवाले विश्वकर्मा (इन्द्र) परमेश्वर! (नः ऊतये) हमारी रक्षा के लिए, (नः सोमम्) हमारे भक्तिरस की (पाहि) आप रक्षा कीजिए, जो भक्तिरस कि (शुष्मिन्तमम्) पापों को शोषण करने का बल देता, (द्युम्निनम्) आध्यात्मिक-धन अर्थात् विभूतियाँ प्रदान करता, तथा उपासक को अपने कर्मों में सदा (जागृविम्) सावधान रखता है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में “पाहि” शब्द द्वारा सोम की रक्षा का वर्णन किया है। अन्य मन्त्रों में “पिब” शब्द द्वारा सोम के पान का वर्णन हुआ है। सम्भवतः इन स्थानों में भी “पाहि” के अर्थ में “पिब” शब्द का वैदिक प्रयोग हो।]