अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
क॒विर्न नि॒ण्यं वि॒दथा॑नि॒ साध॒न्वृषा॒ यत्सेकं॑ विपिपा॒नो अर्चा॑त्। दि॒व इ॒त्था जी॑जनत्स॒प्त का॒रूनह्ना॑ चिच्चक्रुर्व॒युना॑ गृ॒णन्तः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठक॒वि: । न । नि॒ण्यम् । वि॒दथा॑नि । साध॑न् । वृषा॑ । यत् । सेक॑म् । वि॒ऽपि॒पा॒न: । अर्चा॑त् ॥ दि॒व: । इ॒त्था । जी॒ज॒न॒त् । स॒प्त । का॒रून् । अह्ना॑ । चि॒त् । च॒क्रु॒ । वयुना॑ । गृ॒णन्त॑: ॥७७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कविर्न निण्यं विदथानि साधन्वृषा यत्सेकं विपिपानो अर्चात्। दिव इत्था जीजनत्सप्त कारूनह्ना चिच्चक्रुर्वयुना गृणन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठकवि: । न । निण्यम् । विदथानि । साधन् । वृषा । यत् । सेकम् । विऽपिपान: । अर्चात् ॥ दिव: । इत्था । जीजनत् । सप्त । कारून् । अह्ना । चित् । चक्रु । वयुना । गृणन्त: ॥७७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(कविः न) वेद-काव्यों का कवि परमेश्वर जिस प्रकार (निण्यम्) निर्णीत गुप्त रहस्यों का (साधन्) परिज्ञान साधता है, देता है, उसी प्रकार (विदथानि) वेदों के गुप्त रहस्यों का परिज्ञान (साधन्) देता हुआ उपासक, (वृषा) भक्तिरस की वर्षा करता हुआ, (यत्) जब, (सेकम्) परमेश्वरीय आनन्दरस की वर्षा का (विपिपानः) तृष्णापूर्वक पान करता है, तब वह (अर्चात्) वास्तव में अर्चना कर रहा होता है। (इत्था) इसी प्रकार परमेश्वर ने (दिवः) द्युलोक की (सप्त) सात (कारून्) क्रियाशील सौर-रश्मियों को (जीजनत्) जन्म दिया है, जो सौर-रश्मियाँ कि (अह्ना) दिनों को (चक्रुः) पैदा करती हैं, (चित्) और जो मानो (वयुना) ज्ञानों का भी (गृणन्तः) उपदेश दे रही होती हैं।
टिप्पणी -
[परमेश्वर ने वैदिक ज्ञान भी दिया है, और सौर-प्रकाश भी। सौर-प्रकाश से दिनों का निर्माण होता है, और वह हमारे ज्ञानों का भी साधन है।]