अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
स्वर्यद्वेदि॑ सु॒दृशी॑कम॒र्कैर्महि॒ ज्योती॑ रुरुचु॒र्यद्ध॒ वस्तोः॑। अ॒न्धा तमां॑सि॒ दुधि॑ता वि॒चक्षे॒ नृभ्य॑श्चकार॒ नृत॑मो अ॒भिष्टौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॑: । यत् । वेदि॑ । सु॒ऽदृशी॑कम् । अ॒र्कै: । महि॑ । ज्योति॑: । रु॒रु॒चु॒: । यत् । ह॒ । वस्तो॑: ॥ अ॒न्धा । तमां॑सि । दुधि॑ता । वि॒ऽचक्षे॑ । नृऽभ्य॑: । च॒का॒र॒ । नृऽत॑म: । अ॒भिष्टौ॑ ॥७७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमर्कैर्महि ज्योती रुरुचुर्यद्ध वस्तोः। अन्धा तमांसि दुधिता विचक्षे नृभ्यश्चकार नृतमो अभिष्टौ ॥
स्वर रहित पद पाठस्व: । यत् । वेदि । सुऽदृशीकम् । अर्कै: । महि । ज्योति: । रुरुचु: । यत् । ह । वस्तो: ॥ अन्धा । तमांसि । दुधिता । विऽचक्षे । नृऽभ्य: । चकार । नृऽतम: । अभिष्टौ ॥७७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(स्वः) सुखस्वरूप, (सुदृशीकम्) तथा शोभनदर्शनवाले परमेश्वर को, (यद्) जब (अर्कैः) वेदमन्त्रों के द्वारा, (वेदि) मैंने जाना, तब प्रतीत हुआ कि उसी के सामर्थ्य द्वारा, (वस्तोः) दिन की (यद् ह महि ज्योतिः) जो महाज्योति अर्थात् सूर्य है वह तथा रात्रि के तारागण (रुरुचुः) चमक रहे हैं। और (विचक्षे) मैं विशेषरूप में कहता हूँ, और देख रहा हूँ कि सांसारिक भोग तो (अन्धा) अन्धा बना देनेवाले (तमांसि) तमोरूप हैं, और (दुधिता) अहितकर हैं। (नृतमः) सर्वश्रेष्ठ नेता परमेश्वर ने, (नृभ्यः) सर्वसाधारण सांसारिक लोगों के (अभिष्टौ) अभीष्ट साधन के निमित्त (चकार) जगत् की रचना की है।