अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - पाप्महा, अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
वि दे॒वा ज॒रसा॑वृत॒न्वि त्वम॑ग्ने॒ अरा॑त्या। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥
स्वर सहित पद पाठवि । दे॒वा: । ज॒रसा॑ । अ॒वृ॒त॒न् । वि । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । अरा॑त्या । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वि देवा जरसावृतन्वि त्वमग्ने अरात्या। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥
स्वर रहित पद पाठवि । देवा: । जरसा । अवृतन् । वि । त्वम् । अग्ने । अरात्या । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(देवाः) सूर्य, चन्द्र आदि देव (जरसा) जीर्णावस्था से (वि अवृतन्) वियुक्त हैं, पृथक् हैं, (अग्ने) हे यज्ञियाग्नि! (त्वम्) तू (अरात्याः) अदान से (वि) वियुक्त है, पृथक् है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब प्रकार के पाप से (वि) वियुक्त हो जाऊँ (यक्ष्मेण वि) और यक्ष्मरोग से वियुक्त हो जाऊँ, (आयुषा सम्) स्वस्थ तथा दीर्घायु से सम्पन्न हो जाऊँ।
टिप्पणी -
[सूर्य, चन्द्र आदि दिव्य-तत्त्व जब से पैदा हुए हैं, निज शक्तियों द्वारा तरुणावस्था में है। यज्ञियाग्नि में भी जो हवि डाली जाती है, वह सुसंस्कृत होकर वायुमण्डल में फैल जाती है। अत: यज्ञियाग्नि अदानी नहीं। मैं रोगी भी सब पापों से और यक्ष्मा रोग से वियुक्त होकर स्वस्थ आयु से संयुक्त हो जाऊँ, ऐसी अभिलाषा या प्रार्थना है। पापों से वियुक्त हो जाने पर, रोगों से वियुक्त होकर, स्वस्थ आयु प्राप्त होती है।]