अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
अस॒द्भूम्याः॒ सम॑भव॒त्तद्यामे॑ति म॒हद्व्यचः॑। तद्वै ततो॑ विधूपा॒यत्प्र॒त्यक्क॒र्तार॑मृच्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑त् । भूम्या॑: । सम् । अ॒भ॒व॒त् । तत् । याम् । ए॒ति॒ । म॒हत् । व्यच॑: । तत् । वै । तत॑: । वि॒ऽधू॒पा॒यत् । प्र॒त्यक् । क॒र्तार॑म् । ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
असद्भूम्याः समभवत्तद्यामेति महद्व्यचः। तद्वै ततो विधूपायत्प्रत्यक्कर्तारमृच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठअसत् । भूम्या: । सम् । अभवत् । तत् । याम् । एति । महत् । व्यच: । तत् । वै । तत: । विऽधूपायत् । प्रत्यक् । कर्तारम् । ऋच्छतु ॥१९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(असत्) असुरतत्त्व और राक्षसतत्त्व अविद्यमान था, (भूम्या:) भूमि से (समभवत्) वह सम्भूत हुआ, पैदा हुआ, (तत्) वह तत्त्व (महत् व्यचः) महाविस्तृत रूप होकर (याम् एति) जिस भूमि को प्राप्त होता है, (तत्) उस तत्त्व को (ततः) उस प्रदेश से (विधुपायत्) विधूपित किया, (प्रत्यक्) वह प्रतिमुख हुआ (कर्तारम्) कर्त्ता को (ऋच्छतु) पीड़ित करे या प्राप्त हो।
टिप्पणी -
[विधूपायत्=यथा “अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना ‘धूपयामि’ देवयजने पृथिव्याः” (यजु:० ३७।९)। धूपन=धुआँ देना या सन्तप्त करना “धूप सन्तापे” (भ्वादिः)। धूपित करने से असुर तत्त्व और राक्षसतत्त्व अर्थात् विनाशीतत्त्व का विनाश होता है। यज्ञादि शुभ कर्मों में अब भी धूपबत्ती द्वारा धूपन करने की प्रथा विद्यमान है। ऋच्छतु=ऋछ गतीन्द्रियप्रलयमूर्तिभावेषु (तुदादि:)। आसुर-राक्षस भावना पैदा होकर भावना उत्पादक को पीड़ित करती रहे तो उत्पादक किसी भी समय उस भावना से विरक्त हो सकता है।]