अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
प्र॒त्यङ्हि सं॑ब॒भूवि॑थ प्रती॒चीन॑फल॒स्त्वम्। सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ अधि॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यङ् । हि । स॒म्ऽब॒भूवि॑थ । प्र॒ती॒चीन॑ऽफल: । त्वम् । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ । वरी॑य: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥१९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यङ्हि संबभूविथ प्रतीचीनफलस्त्वम्। सर्वान्मच्छपथाँ अधि वरीयो यावया वधम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यङ् । हि । सम्ऽबभूविथ । प्रतीचीनऽफल: । त्वम् । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि । वरीय: । यवय । वधम् ॥१९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
[हे अपामार्ग !] (त्वम्) तू (प्रतीचीनफल:) प्रतीपमुखी फलों वाला, (हि) ही (प्रत्यङ्) प्रतीपमुखी (संबभूविथ) उत्पन्न हुआ है। (सर्वान, शपथान्) सब शपथों को (मत् अधि) मुझसे (यावय) पृथक् कर, तथा (वधम्) वध को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) अलग कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र में शपथ और तद् द्वारा उत्पन्न वध को दुर या पृथक् करने का निर्देश हुआ है। जैसे अपामार्ग के फलों के मुख प्रतीपमुखी होते हैं, वैसे शपथों और तज्जन्य दुःखरूपी फल को भी प्रतीपमुखी करने की प्रार्थना हुई है, न शपथें हों और न उनका दुःखरूपी फल ही मुझे प्राप्त हो। शपथ और अभिशाप भिन्न-भिन्न हैं। शपथ स्वयं ली जाती है, और अभिशाप दूसरे द्वारा प्राप्त होता है। शपथें झूठी होती हैं, अतः झूठ का फल मिलता है-वध, दुःख। परमेश्वर-भेषज पक्ष में फलदायक परमेश्वर है। वह शपथ आदि दुष्कर्मों का फल देता है, दुःख और कष्ट। इसे जानकर व्यक्ति दुष्कर्मों के करने से प्रतीपमुखी हो जाता है, और दुःख या कष्टरूपी वध को प्राप्त नहीं करता।]