अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
श॒तेन॑ मा॒ परि॑ पाहि स॒हस्रे॑णा॒भि र॑क्ष मा। इन्द्र॑स्ते वीरुधां पत उ॒ग्र ओ॒ज्मान॒मा द॑धत् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तेन॑ । मा॒ । परि॑। पा॒हि॒ । स॒हस्रे॑ण । अ॒भि । र॒क्ष॒ । मा॒ । इन्द्र॑: । ते॒ । वी॒रु॒धा॒म् । प॒ते॒ । उ॒ग्र: । ओ॒ज्मान॑म् । आ । द॒ध॒त् ॥१९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
शतेन मा परि पाहि सहस्रेणाभि रक्ष मा। इन्द्रस्ते वीरुधां पत उग्र ओज्मानमा दधत् ॥
स्वर रहित पद पाठशतेन । मा । परि। पाहि । सहस्रेण । अभि । रक्ष । मा । इन्द्र: । ते । वीरुधाम् । पते । उग्र: । ओज्मानम् । आ । दधत् ॥१९.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(शतेन) सौ रक्षोपायों द्वारा (मा) मेरी (परि) सब ओर से (पाहि) रक्षा कर, (सहस्रेण) तथा निज हजार शक्तियों द्वारा (अभि) साक्षात् (मा रक्ष) मेरी रक्षा कर (वीरुधांपते) हे विरोहण करनेवाली लताओं या ओषधियों के पति ! अपामार्ग ! (उग्रः इन्द्र') बलशाली इन्द्र (ते) तेरे लिए (ओज्मानम्) ओज का (आ दधत्) तुझमें आधान करे, स्थापन करे।
टिप्पणी -
[इन्द्रः =परमैश्वर्यवान् परमेश्वर, अपामार्ग में, रक्षा प्रदान के ओज को स्थापित करे। परमेश्वर-भेषज का वर्णन मन्त्र में नहीं हुआ। उस सर्व शक्तिमान् ओजस्वी को ओज प्रदान की शक्ति किसी में नहीं। वह स्वयं निज स्वाभाविक शक्ति द्वारा 'अपामार्ग' है, बुराइयों को 'अप' अर्थात् पृथक् कर, 'मार्ग' शुद्ध करनेवाला है 'मृजूष् शुद्धौ', वह पराशक्ति की अपेक्षा नहीं करता।]