अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वा
देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
अ॒हं सु॑वे पि॒तर॑मस्य मू॒र्धन्मम॒ योनि॑र॒प्स्वन्तः स॑मु॒द्रे। ततो॒ वि ति॑ष्ठे॒ भुव॑नानि॒ विश्वो॒तामूं द्यां व॒र्ष्मणोप॑ स्पृशामि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । सु॒वे॒ । पि॒तर॑म् । अ॒स्य॒ । मू॒र्धन् । मम॑ । योनि॑: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । स॒मु॒द्रे । तत॑: । वि । ति॒ष्ठे॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ । उ॒त । अ॒मूम् । द्याम् । व॒र्ष्मणा॑ । उप॑ । स्पृ॒शा॒मि॒ ॥ ३०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । सुवे । पितरम् । अस्य । मूर्धन् । मम । योनि: । अप्ऽसु । अन्त: । समुद्रे । तत: । वि । तिष्ठे । भुवनानि । विश्वा । उत । अमूम् । द्याम् । वर्ष्मणा । उप । स्पृशामि ॥ ३०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(अस्य) इस भूमण्डल के (पितरम्) पिता को (मूर्धन्) मूर्धा-स्थान में (अहम्) मैं पारमेश्वरी माता (सुवे) प्रसूत करती हूँ, उत्पन्न करती हूँ, (मम योनिः) मेरा घर है (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर, (समुद्रे) तथा अन्तरिक्ष में; (ततः) वहाँ से (विश्वा भुवनानि) सब भुवनों में (वि तिष्ठे) विविध रूपों में मैं स्थित होती हूँ, (उत) तथा (वर्ष्मणा) ऊँचाई द्वारा (अमूम् द्याम्) उस द्युलोक को (उप) समीप होकर (स्पृशामि) स्पर्श करती हूँ।
टिप्पणी -
[पितरम्= सूर्य को। सूर्य सब ग्रहों का पिता है, भूमण्डल का भी पिता है। भूमण्डल आदि ग्रह सूर्य से फटकर पृथक् हुए हैं, जैसे कि सन्तानें, पिता के शरीर से वीर्यरूप में फटकर उत्पन्न होती हैं। मूर्धा है शिर:स्थानीय द्युलोक का अधोभाग। द्युलोक के इस भाग से ऊपर द्युलोक है। योनि का अर्थ है गृह। यथा योनिः गृहनाम (निघं० ३।४)। अप्सु अन्तः= जलों में रहनेवाले जलचरों में, तथा जलों में। समुद्रे= समुद्रः अन्तरिक्षनाम (निघ० १।३) वर्ष्मणा= वर्ष्म=ऊँचाई१; वर्ष्म-= Height (आप्टे)। उप= प्रेमपूर्वक स्पर्श, आलिङ्गन शरीरों की अति समीपता से ही हो सकता है।] [१. परमेश्वर सर्वव्यापक है, अत: वह सब ऊँचाइयों को निज ऊँचाई द्वारा स्पर्श किये हुए है।]