अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त
अ॒भीहि॑ मन्यो त॒वस॒स्तवी॑या॒न्तप॑सा यु॒जा वि ज॑हि॒ शत्रू॑न्। अ॑मित्र॒हा वृ॑त्र॒हा द॑स्यु॒हा च॒ विश्वा॒ वसू॒न्या भ॑रा॒ त्वं नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । इ॒हि॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । त॒वस॑: । तवी॑यान् । तप॑सा । यु॒जा । वि । ज॒हि॒ । शत्रू॑न् । अ॒मि॒त्र॒ऽहा । वृ॒त्र॒ऽहा । द॒स्यु॒ऽहा । च॒ । विश्वा॑ । वसू॑नि । आ । भ॒र॒ । त्वम् । न॒: ॥३२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभीहि मन्यो तवसस्तवीयान्तपसा युजा वि जहि शत्रून्। अमित्रहा वृत्रहा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं नः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । इहि । मन्यो इति । तवस: । तवीयान् । तपसा । युजा । वि । जहि । शत्रून् । अमित्रऽहा । वृत्रऽहा । दस्युऽहा । च । विश्वा । वसूनि । आ । भर । त्वम् । न: ॥३२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(मन्यो) हे मन्यु ! (अभीहि) अभिमुख जा; (तवस: तवीयान्) तू प्रवृद्ध शत्रुशक्ति से भी प्रवृद्ध शक्तिमान् है, (तपसा युजा) तप और जोशरूपी सहयोगी के साथ (शत्रून् वि जहि) शत्रुओं का तू विहनन कर, विनाश कर; (अमित्रहा) अमित्रों का हनन करनेवाला, (वृत्रहा) हमारे राष्ट्र पर घेरा डालनेवाले का हनन करनेवाला, (च दस्युहा) और उपक्षयकारी का हनन करनेवाला तू है, (विश्वा वसूनि) शत्रु के सब धनों का (आभर) आहरण कर (त्वम्) तू (नः) हमारे लिए।
टिप्पणी -
[मन्त्र २ में मन्यु को इन्द्रादिरूप में सर्वरूप कहा है। मन्त्र ३ में सर्वरूप मन्यु को विजेता कहा है। युद्ध में इन्द्रादि का अपलाप किया है, निरसन किया है। इस प्रकार युद्ध में मन्यु को प्रधानता दी है। तवस:= तु वृद्धौ (अदादिः)।]