अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सेनासंयोजन सूक्त
अ॒भि प्रेहि॑ दक्षिण॒तो भ॑वा॒ नोऽधा॑ वृ॒त्राणि॑ जङ्घनाव॒ भूरि॑। जु॒होमि॑ ते ध॒रुणं॒ मध्वो॒ अग्र॑मु॒भावु॑पां॒शु प्र॑थ॒मा पि॑बाव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । द॒क्षि॒ण॒त: । भ॒व॒ । न॒: । अध॑ । वृ॒त्राणि॑ । ज॒ङ्घ॒ना॒व॒ । भूरि॑ । जु॒होमि॑ । ते॒ । ध॒रुण॑म् । मध्व॑: । अग्र॑म् । उ॒भौ । उ॒प॒ऽअं॒शु । प्र॒थ॒मा । पि॒बा॒व॒ ॥३२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा नोऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि। जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभावुपांशु प्रथमा पिबाव ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । प्र । इहि । दक्षिणत: । भव । न: । अध । वृत्राणि । जङ्घनाव । भूरि । जुहोमि । ते । धरुणम् । मध्व: । अग्रम् । उभौ । उपऽअंशु । प्रथमा । पिबाव ॥३२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
[हे मन्यु!] (अभि प्रेहि) हमारे अभिमुख गमन कर, आ, (नः) हमारे (दक्षिणतः) दाहिनी ओर (भव) हो, (अधा) तदनन्तर (भूरि) प्रभूत (वृत्राणि) राष्ट्र का आवरण करनेवाले, घेरा डालने वाले शत्रुओं का (जङ्घनाव) हम दोनों हनन करें; (ते) हे मन्यु! तेरे लिए (धरुणम्) पोषक, (मध्व:) मधुर रस के (अग्रम्) श्रेष्ठ भाग की (जुहोमि) मैं आहुतियाँ देता हूँ, (उभौ) हम दोनों (प्रथमौ) युद्धारम्भ से पूर्व (उपांशु) अप्रकट रूप में (पिबाव) सोमपान करें।
टिप्पणी -
[दक्षिणतः= युद्ध में दाहिना हाथ कार्यकारी होता है। मन्यु को सेनापति ने अपना दाहिना हाथ माना है। मान्य व्यक्ति को दाहिनी ओर रखना, यह शिष्टाचार भी है,-यह भी उपदिष्ट किया है। युद्ध से पूर्व सोमरस का सेवन करना और शुभकार्यारम्भ में यज्ञ करना, इसकी सूचना भी मन्त्र द्वारा मिलती है। सोमरस का पान शक्तिवर्धक है। इसका उपांशुरूप में पान करना इसलिए कहा है कि इसकी पूर्वसूचना शत्रु को प्राप्त न हो सके कि हम शक्ति प्राप्त कर उसके साथ युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। जङ्घनाव= हन्+ यङ्+लुक+आट् आगम।]