अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
ये॒धस्ता॒ज्जुह्व॑ति जातवेदो ध्रु॒वाया॑ दि॒शोऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। भूमि॑मृ॒त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒धस्ता॑त् । जुह्व॑ति । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । ध्रु॒वाया॑: । दि॒श: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । भूमि॑म् । ऋ॒त्वा । ते॒ । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
येधस्ताज्जुह्वति जातवेदो ध्रुवाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्। भूमिमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥
स्वर रहित पद पाठये । अधस्तात् । जुह्वति । जातऽवेद: । ध्रुवाया: । दिश: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । भूमिम् । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
हे प्रतिपदार्थ में विद्यमान तथा प्रज्ञावाले परमेश्वर! जो रोग-कीटाणु नीचे की दिशा से हमें खाते हैं, और नीचे की दिशा में हमें साक्षात उपक्षीण करते हैं, शक्तिहीन करते हैं, वे भूमि को प्राप्त होकर पराङ्मुख हुए, व्यथा को प्राप्त हों। इन रोग-कीटाणुओं को प्रतिमुख करके, प्रतीपमुख करके, प्रतिसारक साधन द्वारा मैं मार देता हूँ।
टिप्पणी -
[रोग कीटाणु भूमि में पैदा होकर वायुमंडल में फैलते हैं। अत: इनका विनाश भी भूमि में होना चाहिए। पशुओं और मनुष्यों द्वारा उत्पन्न गन्ध इन्हें पैदा करता है, और भूमि की स्वच्छता इनके विनाश का साधन है। तथा भूमिगत ओषधियाँ आदि भी इनके प्रतिसारण में अर्थात् निवारण में साधक हैं।]