अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 7
य उ॒परि॑ष्टा॒ज्जुह्व॑ति जातवेद ऊ॒र्ध्वाया॑ दि॒शोऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। सूर्य॑मृ॒त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥
स्वर सहित पद पाठये । उ॒परि॑ष्टात् । जुह्व॑ति। जा॒त॒ऽवे॒द॒: । ऊ॒र्ध्वाया॑: । दि॒श: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । सूर्य॑म् । ऋ॒त्वा । ते । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
य उपरिष्टाज्जुह्वति जातवेद ऊर्ध्वाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्। सूर्यमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥
स्वर रहित पद पाठये । उपरिष्टात् । जुह्वति। जातऽवेद: । ऊर्ध्वाया: । दिश: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । सूर्यम् । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
हे प्रतिपदार्थ में विद्यमान तथा प्रज्ञावाले परमेश्वर! जो रोग -कीटाणु हमें ऊपर की दिशा से खाते हैं, और ऊर्ध्वादिशा से हमें साक्षात् उपक्षीण करते हैं, शक्तिहीन करते हैं, वे सूर्य को प्राप्त होकर, पराङ्मुख हुए व्यथा को प्राप्त हों। उन रोग-कीटाणुओं को प्रतिमुख करके, प्रतीपमुख करके, प्रतिसारक साधन द्वारा मैं मार देता हूँ।
टिप्पणी -
[पराङ्मुख तथा प्रतीपमुख का अभिप्राय है कि इन रोग- कीटाणुओं का मुख हमारी ओर न हो, हमारी और इनका आगमन न हो, अपितु ये हमारी ओर पीठ करके हमसे विपरीत दिशा की ओर चले जाएँ, उधर ही इनका गमन हो। मन्त्र १ से मन्त्र ७ तक सौर-लोक, अर्थात् सौर-परिवार का वर्णन हुआ है। सूर्य रोग-कीटाणुओं को पराङ्मुख करता है। यथा "उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्लोचन् हन्तु रश्मिभिः" (अथर्व० २।३२।१)। अर्थात् उदय को प्राप्त होता हुआ आदित्य क्रिमियों का हनन करे, तथा अस्त होता हुआ भी हनन करे, रश्मियों द्वारा। इन दोनों समयों की आदित्य-रश्मियाँ रक्त अर्थात् लाल या ताम्र१ के वर्णवाली होती हैं। इन रश्मियों में क्रिमियों के विनाश की शक्ति अधिक प्रतीत होती है। क्रिमि हैं, हिंस्र क्रिमि (कृञ् हिंसायाम्, क्र्यादिः)।] [१. "उदेति सविता ताम्रः, ताम्र एवास्तमेति च।"]