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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शुक्रः देवता - सूर्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    41

    य उ॒परि॑ष्टा॒ज्जुह्व॑ति जातवेद ऊ॒र्ध्वाया॑ दि॒शोऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। सूर्य॑मृ॒त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । उ॒परि॑ष्टात् । जुह्व॑ति। जा॒त॒ऽवे॒द॒: । ऊ॒र्ध्वाया॑: । दि॒श: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । सूर्य॑म् । ऋ॒त्वा । ते । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उपरिष्टाज्जुह्वति जातवेद ऊर्ध्वाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्। सूर्यमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । उपरिष्टात् । जुह्वति। जातऽवेद: । ऊर्ध्वाया: । दिश: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । सूर्यम् । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे ज्ञानवान् परमेश्वर ! (ये) जो लोग (उपरिष्टात्) ऊँचे स्थान में (ऊर्ध्वायाः) ऊपरवाली (दिशः) दिशा से (अस्मान्) हमको (जुह्वति) खाते और (अभिदासन्ति) चढ़ाई करते हैं। (ते) वे (सूर्यम्) [तुझ] सर्वव्यापक वा सर्वप्रेरक को (ऋत्वा) पाकर.... म० १ ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(उपरिष्टात्) उपर्युपरिष्टात्। पा० ५।३।३१। इति ऊर्ध्व-रिष्टातिल्, ऊर्ध्वस्य उपभावः। ऊर्ध्वभागे (ऊर्ध्वायाः) अ० ३।२६।६। उपरि वर्तमानायाः (सूर्यम्) अ० १।३।५। सर्वव्यापकं सर्वप्रेरकं वा त्वां परमात्मानम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    ऊर्ध्वा दिक् से

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (ये) = जो शत्रु (उपरिष्ठात् जुह्वति) = ऊपर से हमें खाने को दौड़ते हैं, (जोयाः दिश:) = ऊर्ध्वा दिक् से (अस्मान् अभिदासन्ति) = हमें उपक्षीण करते हैं, (सूर्यम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक में स्थित ज्ञानसूर्य को (ऋत्वा) = प्रास करके (ते) = वे शत्रु (पराञ्च:) = पराङ्मुख होकर (व्यथन्ताम्) = पीड़ित हों। २. (एनान्) = इन शत्रुओं को (प्रतिसरेण) = शरीरस्थ सोम के अङ्ग प्रत्यङ्ग में सरण के द्वारा (प्रत्यग हन्मि) = पराङ्मुख करके नष्ट करता हूँ।

    भावार्थ

    मस्तिष्क में स्थित ज्ञानसूर्य के प्रकाश में ऊर्ध्वा दिक् से आक्रमण करनेवाले शत्रुओं का विलय हो जाता है।

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    भाषार्थ

    हे प्रतिपदार्थ में विद्यमान तथा प्रज्ञावाले परमेश्वर! जो रोग -कीटाणु हमें ऊपर की दिशा से खाते हैं, और ऊर्ध्वादिशा से हमें साक्षात् उपक्षीण करते हैं, शक्तिहीन करते हैं, वे सूर्य को प्राप्त होकर, पराङ्मुख हुए व्यथा को प्राप्त हों। उन रोग-कीटाणुओं को प्रतिमुख करके, प्रतीपमुख करके, प्रतिसारक साधन द्वारा मैं मार देता हूँ।

    टिप्पणी

    [पराङ्मुख तथा प्रतीपमुख का अभिप्राय है कि इन रोग- कीटाणुओं का मुख हमारी ओर न हो, हमारी और इनका आगमन न हो, अपितु ये हमारी ओर पीठ करके हमसे विपरीत दिशा की ओर चले जाएँ, उधर ही इनका गमन हो। मन्त्र १ से मन्त्र ७ तक सौर-लोक, अर्थात् सौर-परिवार का वर्णन हुआ है। सूर्य रोग-कीटाणुओं को पराङ्मुख करता है। यथा "उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्लोचन् हन्तु रश्मिभिः" (अथर्व० २।३२।१)। अर्थात् उदय को प्राप्त होता हुआ आदित्य क्रिमियों का हनन करे, तथा अस्त होता हुआ भी हनन करे, रश्मियों द्वारा। इन दोनों समयों की आदित्य-रश्मियाँ रक्त अर्थात् लाल या ताम्र१ के वर्णवाली होती हैं। इन रश्मियों में क्रिमियों के विनाश की शक्ति अधिक प्रतीत होती है। क्रिमि हैं, हिंस्र क्रिमि (कृञ् हिंसायाम्, क्र्यादिः)।] [१. "उदेति सविता ताम्रः, ताम्र एवास्तमेति च।"]

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    विषय

    आक्रमणकारी शत्रुओं के विनाश करने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे जातवेदः ! (ये उपरिष्टात्०) जो ऊपर की ओर अपने पदार्थों की आहुति करें और (ऊर्ध्वायाः दिशः अभिदासन्ति अस्मान्) ऊर्ध्व दिशा से हमें नष्ट करना चाहें वे सूर्यवत् तेजस्वी को प्राप्त होकर पराजित हों और उनका पीछा करके मैं विनाश करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। कृत्याप्रतिहरणाय बहवो देवताः। २ जगती। ८ पुरीतिशक्वरी पदयुक्ता जगती। १, ३-५ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    O Jataveda, those who first offer the tribute of homage from above and from the same high direction attack us and try to enslave us come to nothing, when later they face Surya, solar blaze of the pure light of truth. I hit them back and destroy them straight with an equal and opposite blow.

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    Translation

    O Jatavedas: (knower of all), those who challenge us from zenith and want to enslave us from the upward region, may they turn back, go to the sun and suffer pain. I drive them back with my counter-attack.

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    Translation

    May they who desire to devour us from above and assail us from above direction, be turned backward. O learned man and be troubled countering Surya, the all-impelling fire. Rest is like the previous one.

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    Translation

    O Omniscient God, may those foes, who want to destroy and attack us from the upward lofty quarter, punished by Thee, the All-Pervading, turn their back and be put to pain. I smite them back with the help of Thee, the Leader.

    Footnote

    Lofty quarter: Zenith.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(उपरिष्टात्) उपर्युपरिष्टात्। पा० ५।३।३१। इति ऊर्ध्व-रिष्टातिल्, ऊर्ध्वस्य उपभावः। ऊर्ध्वभागे (ऊर्ध्वायाः) अ० ३।२६।६। उपरि वर्तमानायाः (सूर्यम्) अ० १।३।५। सर्वव्यापकं सर्वप्रेरकं वा त्वां परमात्मानम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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