अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
ये प॒श्चाज्जुह्व॑ति जातवेदः प्र॒तीच्या॑ दि॒शोऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। वरु॑णमृ॒त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥
स्वर सहित पद पाठये । प॒श्चात् । जुह्व॑ति । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । प्र॒तीच्या॑: । दि॒श: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । वरु॑णम् । ऋ॒त्वा । ते । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ये पश्चाज्जुह्वति जातवेदः प्रतीच्या दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्। वरुणमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥
स्वर रहित पद पाठये । पश्चात् । जुह्वति । जातऽवेद: । प्रतीच्या: । दिश: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । वरुणम् । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(जातवेदः) हे ज्ञानवान् परमेश्वर ! (ये) जो लोग (पश्चात्) पीछे की ओर में (प्रतीच्याः) पश्चिम वा पीछेवाली (दिशः) दिशा से (अस्मान्) हमको (जुह्वति) खाते और (अभिदासन्ति) चढ़ाई करते हैं। (ते) वे वरुणम् [तुझ] सर्वश्रेष्ठ को (ऋत्वा) पाकर म०....१ ॥३॥
टिप्पणी
३−(पश्चात्) पश्चात्। पा० ५।३।३२। इति अपरं−आति, पश्चभावः पश्चाद् देशे (प्रतीच्याः) अ० ३।२६।३। पश्चिमायाः। पश्चाद्भागे स्थितायाः (वरुणम्) वरणीयं श्रेष्ठं त्वाम् ॥
विषय
प्रतीची दिक् से
पदार्थ
१. (ये) = जो (पश्चात्) = पीछे से (जुह्वति) = हमें खाने को आते हैं, हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (प्रतीच्याः दिश:) = पश्चिम दिशा से (अस्मान् अभिदासन्ति) = हमारा उपक्षय करते हैं, (ते) = वै (वरुणम् ऋत्वा) = [वारयति] मेरे अन्दर स्थित (द्वेष) = निवारण-निषता की भावना को प्राप्त करके (पराञ्च:) = पराङ्मुख होकर (व्यथन्ताम्) = पीड़ित हों। २. मैं (एनान्) = इन शत्रुओं को (प्रतिसरेण) = शरीर में उत्पन्न सोम को अङ्ग-प्रत्यङ्ग में गतिवाला करके (प्रत्यग हन्मि) = पराङ्मुख करके नष्ट कर डालता हूँ।
भावार्थ
मेरे अन्दर स्थित सौम्यता का भाव पीछे से आक्रमण करनेवाले सब शत्रुओं को समाप्त कर देता है।
भाषार्थ
हे प्रतिपदार्थ में विद्यमान तथा प्रज्ञावाले परमेश्वर! जो रोगकीटाणु पश्चिम दिशा से हमें खाते हैं, और पश्चिम दिशा से हमें साक्षात् उपक्षीण करते हैं, शक्तिहीन करते हैं, वे वरुण को पास होकर, पराङ्मुख हुए व्यथा को प्राप्त हों। इन रोगकीटाणुओं को प्रतिमुख अर्थात् प्रतीपमुख करके, प्रतिसारक साधन द्वारा मैं मार देता हूँ।
टिप्पणी
[प्रतिसारक साधन हैं' वरुण' अर्थात् जलाधिपति। यथा "वरुणोऽपामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।४) वर्षा द्वारा अति गर्मी का अभाव हो जाने पर, ग्रीष्म ऋतु में प्रादुर्भूत रोगकीटाणुओं का विनाश हो जाता है। वरुण का सम्बन्ध पश्चिम दिशा के साथ दर्शाया है। कारण यह कि प्रथम-वर्षा पश्चिमी समुद्र के वाष्पीभूत जल द्वारा होती है, कालान्तर में वर्षा दक्षिणस्थ समुद्र के वाष्पीभूत जल द्वारा होती है।]
विषय
आक्रमणकारी शत्रुओं के विनाश करने का उपदेश।
भावार्थ
जो (पश्चात्) पीठ पीछे से या पश्चिम दिशा की ओर से (जुह्वति) अपने को आहुति कर दें और उस दिशा से (अस्मान् अभिदासन्ति) हमें विनाश करें वे (वरुणम् ऋत्वा० इत्यादि) वरुण, निवारक शक्ति को प्राप्त होकर परास्त होकर जायं और उनका पीछा करके मैं विनाश करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। कृत्याप्रतिहरणाय बहवो देवताः। २ जगती। ८ पुरीतिशक्वरी पदयुक्ता जगती। १, ३-५ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
O Jataveda, those who first offer the tribute of homage from the back side, western quarter, and them from the same direction attack and try to enslave us, later, when they face Varuna, lord of judgement and dispensation, come to nothing. I hit them back and destroy them straight with an equal and opposite stroke.
Translation
O Jatavedas (knower of all), those who challenge us from left and want to enslave us from the western region, may they turn back; go to the ocean and suffer pain. I drive them back with my counter-attack.
Translation
May they who desire to devour us from west-ward and assail us from the western quarter, be turned backward, O learned man! and be pained countering Varuna, the all-Overwhelming fire. The rest is like previous one.
Translation
O Omniscient God, may those foes, who want to destroy and attack us from behind, the westward direction, punished by Thee, the Most Exalted, turn their back and be put to pain. I smite them back, with the help of Thee, the Leader!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(पश्चात्) पश्चात्। पा० ५।३।३२। इति अपरं−आति, पश्चभावः पश्चाद् देशे (प्रतीच्याः) अ० ३।२६।३। पश्चिमायाः। पश्चाद्भागे स्थितायाः (वरुणम्) वरणीयं श्रेष्ठं त्वाम् ॥
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