अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
ये॒धस्ता॒ज्जुह्व॑ति जातवेदो ध्रु॒वाया॑ दि॒शोऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। भूमि॑मृ॒त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒धस्ता॑त् । जुह्व॑ति । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । ध्रु॒वाया॑: । दि॒श: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । भूमि॑म् । ऋ॒त्वा । ते॒ । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
येधस्ताज्जुह्वति जातवेदो ध्रुवाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्। भूमिमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥
स्वर रहित पद पाठये । अधस्तात् । जुह्वति । जातऽवेद: । ध्रुवाया: । दिश: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । भूमिम् । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(जातवेदः) हे ज्ञानवान् परमेश्वर ! (ये) जो लोग (अधस्तात्) नीचे की ओर में (ध्रुवायाः) स्थिर (दिशः) दिशा से (अस्मान्) हमको (जुह्वति) खाते और (अभिदासन्ति) चढ़ाई करते हैं। (ते) वे (भूमिम्) [तुझ] सर्वाधार को (ऋत्वा) पाकर.... म० १ ॥५॥
टिप्पणी
५−(अधस्तात्) दिक्शब्देभ्यः०। पा० ५।३।२७। इति अधर-अस्ताति। अस्ताति च। पा० ५।३।४०। इति अध् इत्यादेशः। अधोभागे (ध्रुवायाः) अ० ३।२६।५। स्थिरायाः (भूमिम्) अ० १।११।२। भवन्ति भूतानि यस्यां सा भूमिः, ईश्वरनाम-सत्यार्थप्रकाशे, समुल्लासे १। सर्वाधारं त्वाम् ॥
विषय
ध्रुवा दिक् से
पदार्थ
१. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (ये) = जो शत्रु (अवस्तात्) = नीचे की ओर से (जुह्वति) = हमें खाने को आते हैं, (धुवाया: दिश:) = इस ध्रुवा दिक से (अस्मान् अभिदासन्ति) = हमारा उपक्षय करते हैं, (ते) = वे (शत्रुभूमिम्) = [भवन्ति भूतानि अस्याम्] 'सब प्राणियों के कल्याण की कामना की वृत्ति' को (ऋत्वा) = प्रास करके (पराञ्चः) = पराङ्मुख होकर (व्यचन्ताम्) = पीड़ित हों। २. (एनान्) = इन शत्रुओं को (प्रतिसरेण) = शरीर में उत्पन्न सोम की अङ्ग-प्रत्यङ्ग में गति के द्वारा (प्रत्यग् हन्मि) = पराङ्मुख करके नष्ट कर डालता हूँ।
भावार्थ
हमारे हृदयों में सब प्राणियों के कल्याण की कामना हो। यह काम ध्रुवा दिक् से आक्रमण करनेवाले शत्रुओं का विनाश करेगी।
भाषार्थ
हे प्रतिपदार्थ में विद्यमान तथा प्रज्ञावाले परमेश्वर! जो रोग-कीटाणु नीचे की दिशा से हमें खाते हैं, और नीचे की दिशा में हमें साक्षात उपक्षीण करते हैं, शक्तिहीन करते हैं, वे भूमि को प्राप्त होकर पराङ्मुख हुए, व्यथा को प्राप्त हों। इन रोग-कीटाणुओं को प्रतिमुख करके, प्रतीपमुख करके, प्रतिसारक साधन द्वारा मैं मार देता हूँ।
टिप्पणी
[रोग कीटाणु भूमि में पैदा होकर वायुमंडल में फैलते हैं। अत: इनका विनाश भी भूमि में होना चाहिए। पशुओं और मनुष्यों द्वारा उत्पन्न गन्ध इन्हें पैदा करता है, और भूमि की स्वच्छता इनके विनाश का साधन है। तथा भूमिगत ओषधियाँ आदि भी इनके प्रतिसारण में अर्थात् निवारण में साधक हैं।]
विषय
आक्रमणकारी शत्रुओं के विनाश करने का उपदेश।
भावार्थ
हे जातवेदः ! जो लोग (अधस्तात् जुह्वति०) अपना सर्वस्व नीचे भूमि में गाड़ कर नष्ट करें और नीचे की दिशा से हमें विनाश करना चाहें, वे (ते भूमिम्०) भूमि को प्राप्त होकर परास्त हो जायं और मैं पीछा करके उनका विनाश करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। कृत्याप्रतिहरणाय बहवो देवताः। २ जगती। ८ पुरीतिशक्वरी पदयुक्ता जगती। १, ३-५ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
O Jataveda, those, who first offer the tribute of homage from below and then from the same lower direction attack us and try to enslave us, later, when they face Mother Earth, mother of all her children equally, come to nothing. I hit them back and destroy them straight with an equal and opposite blow.
Translation
O Játavedas (knower of all), those who challenge us from nadir and want to enslave us from the downward region, may they turn back, go to the earth and suffer pain. I-drive them back with my counter-attack.
Translation
May they who desire to devour us from below dnd assail as from the below quarter, be burned backward O learned man! And be pained countering Bhumi, the all-prevailing fire. Rest is like the previous one.
Translation
O Omniscient God, may those foes, who want to destroy and attack us from the nether, steadfast direction, punished by Thee, the support of all, turn their back, and be put to pain. I smite them back with the help of Thee, the Leader!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(अधस्तात्) दिक्शब्देभ्यः०। पा० ५।३।२७। इति अधर-अस्ताति। अस्ताति च। पा० ५।३।४०। इति अध् इत्यादेशः। अधोभागे (ध्रुवायाः) अ० ३।२६।५। स्थिरायाः (भूमिम्) अ० १।११।२। भवन्ति भूतानि यस्यां सा भूमिः, ईश्वरनाम-सत्यार्थप्रकाशे, समुल्लासे १। सर्वाधारं त्वाम् ॥
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