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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 8
    ऋषिः - शुक्रः देवता - दिशः छन्दः - पुरोऽतिशक्वरीपादयुग्जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    55

    ये दि॒शाम॑न्तर्दे॒शेभ्यो॒ जुह्व॑ति जातवेदः॒ सर्वा॑भ्यो दि॒ग्भ्योऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। ब्रह्म॒र्त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । दि॒शाम् । अ॒न्त॒:ऽदे॒शेभ्य॑: । जुह्व॑ति । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । सर्वा॑भ्य: । दि॒क्ऽभ्य: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । ब्रह्म॑ । ऋ॒त्वा । ते । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये दिशामन्तर्देशेभ्यो जुह्वति जातवेदः सर्वाभ्यो दिग्भ्योऽभिदासन्त्यस्मान्। ब्रह्मर्त्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । दिशाम् । अन्त:ऽदेशेभ्य: । जुह्वति । जातऽवेद: । सर्वाभ्य: । दिक्ऽभ्य: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । ब्रह्म । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 8
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    हिन्दी (3)

    विषय

    शत्रु के नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे ज्ञानवान् परमेश्वर ! (ये) जो लोग (दिशाम्) दिशाओं के (अन्तर्देशेभ्यः) मध्य देशों से (सर्वाभ्यः) सब (दिग्भ्यः) दिशाओं से (अस्मान्) हमको (जुह्वति) खाते और (अभिदासन्ति) चढ़ाई करते हैं। (ते) वे (ब्रह्म) [तुझ] ब्रह्म को (ऋत्वा) पाकर (पराञ्चः) पीठ देते हुए (व्यथन्ताम्) व्यथा में पड़ें। (एनान्) इनको (प्रतिसरेण) [तुझ] अग्रगामी के साथ (प्रत्यक्) उलटा (हन्मि) मैं मारता हूँ ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य उस सर्वनियन्ता परब्रह्म का आश्रय लेकर विचारपूर्वक अपने सब विघ्नों का नाश करके आनन्द भोगें ॥८॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः ॥ इति नवमः प्रपाठकः ॥ इति चतुर्थं काण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाडाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमास- परीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये चतुर्थकाण्डं समाप्तम् ॥

    टिप्पणी

    ८−(दिशाम्) दिशानाम् (अन्तर्देशेभ्यः) अन्तरालेभ्यः (सर्वाभ्यः) सकलाभ्यः (दिग्भ्यः) दिशाभ्यः (ब्रह्म) अ० १।८।४। सर्वेभ्यो बृहत्त्वाद् ब्रह्म। तं त्वां परमेश्वरम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सब दिशाओं से

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! ये-जो शत्रु (दिशाम् अन्तर्देशेभ्य:) = दिशाओं के अन्तर्देशों से जुह्वति-हमें खाने को आते हैं, (सर्वाभ्यः दिग्भ्यः) = सब दिशाओं से (अस्मान् अभिदासन्ति) = हमारा उपक्षय करते है, (ब्रह्मा) = उस सर्वव्यापक प्रभु की व्यापकता  के स्मरण के भाव को (ऋत्वा) = प्रास होकर (ते) = वे शत्रु (पराञ्चः) = पराङ्मुख होकर (व्यथन्ताम्) = पीड़ित हों। २. (एनान्) = इन शत्रुओं को (प्रतिसरेण) =शरीरस्थ सोम के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में सरण के द्वारा (प्रत्यग्) = पराङ्मुख करके (हन्मि) = नष्ट करता हूँ।

    भावार्थ

    प्रभु की व्यापकता का स्मरण सब दिशाओं से आक्रमण करनेवाले शत्रुओं को विनष्ट करे।

    सूचना

    इस सूक्त में काव्यमयी भाषा में आक्रामक शत्रुओं के विनाश का बड़ा सुन्दर संकेत है। विविध दिशाओं से काम-क्रोध आदि शत्रु हमपर आक्रमण करते हैं। इनसे अपने को बचाने के लिए इन दिशाओं में 'अग्नि, यम, वरुण, सोम, भूमि, वायु, सूर्य व ब्रह्म' रूप पहरेदारों को नियुक्त करना है। आगे बढ़ने की भावना ही 'अग्नि' है, नियन्त्रण-संयम का भाव 'यम' है। निषता 'वरुण' है। सौम्यता का भाव 'सोम' है। 'सब प्रणियों के कल्याण की कामना' ही भूमि है, क्रियाशीलता वायु है। ज्ञान का सूर्य 'सूर्य' है तो सर्वव्यापक प्रभु का स्मरण ही 'ब्रह्म' है। ये आठ वृत्तियों पहरेदार हैं, ये हमें शत्रुओं के आक्रमण से बचाती हैं।

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    भाषार्थ

    हे प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान तथा प्रज्ञावाले परमेश्वर! जो रोगकीटाणु, दिशाओं के अन्तराल-प्रदेशों से हमें खाते हैं, और सब दिशाओं से हमें उपक्षीण करते हैं, शक्तिहीन करते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होकर पराङ्मुख हुए व्यथा को प्राप्त हों। इन रोग-कीटाणुओं को प्रतिमुख अर्थात् प्रतीपमुख करके प्रतिसारक साधन द्वारा मैं मार देता हूँ।

    टिप्पणी

    [ब्रह्म= अन्न। यथा "ब्रह्म अन्ननाम" (निघं० २।७)। मन्त्र १ से ७ तक के मन्त्रों में अग्नि आदि प्राकृतिक तत्त्वों द्वारा रोग-कीटाणुओं को व्यथित, तथा इनका प्रतिसारण किया है। प्रकरण की एकता की दृष्टि से मन्त्र ८ में भी प्रतिसारण प्राकृतिक तत्त्व ही होना चाहिए, वह है अन्न। निघण्टु के अनुसार 'ब्रह्म' पद का अर्थ अन्न भी है। मित, सुपाच्य तथा रोग-निवारक और पुष्टिदायक अन्न के सेवन से रोग-कीटाणु शरीर पर आक्रमण करने की शक्ति नहीं रखते, शरीर में Immunity अर्थात् रोग प्रतिरोधक शक्ति पैदा हो जाती है, जिससे रोग-कीटाणु शरीर पर आक्रमण नहीं कर पाते]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    O Jataveda, those who first offer the tribute of homage from the middle spaces of all directions and then from all those directions attack us and try to enslave us later come to naught when they face Brahma, eternal lord of light and life and ultimate justcie. I hit them back and destroy them straight with a single blow of equal and opposite force.

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    Translation

    O Játavedas (knower of all), those who challenge us from intermediate directions and who want to enslave us from all the regions, may they turn back, go to the Lord supreme and suffer pain. I drive them back with my counter-attack.

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    Translation

    May they who desire to devour us from all points and assail us from all directions, turned backward. O learned man and be troubled countering Brahman, the most powerful fire. Rest is like the previous one.

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    Translation

    O Omniscient God, may those foes, who want to destroy and attack us from all points in the intermediate regions, punished by the Mighty God, turn their back and be put to pain. I smite them back with the help of Thee, the Leader.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(दिशाम्) दिशानाम् (अन्तर्देशेभ्यः) अन्तरालेभ्यः (सर्वाभ्यः) सकलाभ्यः (दिग्भ्यः) दिशाभ्यः (ब्रह्म) अ० १।८।४। सर्वेभ्यो बृहत्त्वाद् ब्रह्म। तं त्वां परमेश्वरम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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