अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 6
ये॑ऽन्तरि॑क्षा॒ज्जुह्व॑ति जातवेदो व्य॒ध्वाया॑ दि॒शोऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। वा॒युमृ॒त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒न्तरि॑क्षात् । जुह्व॑ति । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । वि॒ऽअ॒ध्वाया॑: । दि॒श: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । वा॒युम् । ऋ॒त्वा । ते॒ । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
येऽन्तरिक्षाज्जुह्वति जातवेदो व्यध्वाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्। वायुमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥
स्वर रहित पद पाठये । अन्तरिक्षात् । जुह्वति । जातऽवेद: । विऽअध्वाया: । दिश: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । वायुम् । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
हे प्रतिपदार्थ में विद्यमान तथा प्रज्ञावाले परमेश्वर! जो रोग कीटाणु हमें अन्तरिक्ष से खाते हैं, और मार्गहीन दिशा में हमें साक्षात उपक्षीण करते हैं, शक्तिहीन करते हैं, वे वायु को प्राप्त होकर, पराङ्मुख हुए व्यथा को प्राप्त हों। इन रोगकीटाणुओं को प्रतिमुख करके, प्रतीपमुख करके प्रतिसारक साधन द्वारा मैं मार देता हूं।
टिप्पणी -
[अन्तरिक्षस्थ वायु की अस्वच्छता के होते वायुगत रोगकीटाणु हमें खाते हैं, और वायु से ही हमें शक्तिविहीन करते रहते हैं, परन्तु भूमि की शुद्धि तथा यज्ञियाग्नि से उत्थित रोगनाशक ओषधियों के धूम द्वारा जब रोगकीटाणु नष्ट हो जाते हैं तब ये वायु को प्राप्त हुए ही व्यथा को प्राप्त कर नष्ट हो जाते हैं, और वायु ही इनके प्रतिसारण अर्थात् निवारण का साधन बन जाती है। व्यध्वाया:= अन्तरिक्ष में मनुष्यकृत् अध्वा अर्थात् मार्ग नहीं, परमेश्वर कृत् मार्ग तो हैं, जिन मार्गों द्वारा पक्षी, चन्द्र, पृथिवी तथा अन्य ग्रह उपग्रह आदि विचर रहे हैं।१] [१. अन्तरिक्ष से ऊपर द्युलोक में तो परमेश्वरकृत असंख्य मार्ग हैं, जिनमें असंख्य तारे निज-निज मार्गों में विचर रहे हैं।]