अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
स॒हस्र॑धार ए॒व ते॒ सम॑स्वरन्दि॒वो नाके॒ मधु॑जिह्वा अस॒श्चतः॑। तस्य॒ स्पशो॒ न नि॑ मिषन्ति॒ भूर्ण॑यः प॒देप॑दे पा॒शिनः॑ सन्ति॒ सेत॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्र॑ऽधारे । ए॒व । ते । सम् । अ॒स्व॒र॒न् । दि॒व: । नाके॑ । मधु॑ऽजिह्वा: । अ॒स॒श्चत॑: । तस्य॑ । स्पश॑: । न । नि । मि॒ष॒न्ति॒ । भूर्ण॑य: । प॒देऽप॑दे । पा॒शिन॑: । स॒न्ति॒ । सेत॑वे ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रधार एव ते समस्वरन्दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतः। तस्य स्पशो न नि मिषन्ति भूर्णयः पदेपदे पाशिनः सन्ति सेतवे ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽधारे । एव । ते । सम् । अस्वरन् । दिव: । नाके । मधुऽजिह्वा: । असश्चत: । तस्य । स्पश: । न । नि । मिषन्ति । भूर्णय: । पदेऽपदे । पाशिन: । सन्ति । सेतवे ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(सहस्रधारे) हजारों का धारण करनेवाले, (दिवः) द्योतमान ब्रह्म के (नाके) सांसारिक सुख-दुःखरहित आनन्दस्वरूप में (एव) ही रहनेवाले, (मधुजिह्वाः) मधुरभाषी, (असश्चतः१) असक्त, आसक्तिरहित, अथवा [रागद्वेष से] विमुक्त (ते) वे [अनाप्ताः मन्त्र २], (समस्वरन ) मिलकर बोले कि (तस्य) उस ब्रह्म के ( भूर्णयः ) क्षिप्रगामी (स्पश: ) गुप्तचर ( न निमिषन्ति) निमेष तक नहीं करते, और (पदे पदे) पग-पग पर, (पाशिन: ) फन्दोंवाले होकर (सेतवे, सन्ति) बांधने के लिए विद्यमान हैं ।
टिप्पणी -
[जिह्वा वाङ्नाम (निघं० १।११ ) । असश्चत:; असश्चन्ती असज्यमाने (निरुक्त ५।२।२) अथवा सचति गतिकर्मा (निघं० २।१४ ), अतः "अ+सचति"= विगतकर्मा, रागद्वेष से विगत, अनाप्त पुरुष। भुर्णयः; "भुरण्यति, भुरण्युः" गतिकर्मा क्षिप्रनाम (निघन० २।१४; २।१५)। मन्त्र (२) में सुकर्मों को करनेवाले अनाप्तों का निर्देश हुआ है, मन्त्र (३) में वे अनाप्त पुरुष सावधान करते हैं कि दुष्कर्मों के करनेवालों को बांधने के लिए ब्रह्म के गुप्तचर सर्वत्र विचर रहे हैं। यद्यपि स्पशों का सम्बन्ध बरुण के साथ है, परन्तु वरुण और ब्रह्म एक ही हैं। वरुण-ब्रह्म=वरणीय ब्रह्म, श्रेष्ठ-ब्रह्म।] [१. अ+षञ्ज (संगे, भ्वादिः), षञ्जस्थाने सश्च" छान्दस आदेशः।]