अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तां वसु॑रुचिः सौर्यवर्च॒सोधो॒क्तां पुण्य॑मे॒व ग॒न्धम॑धोक्।
स्वर सहित पद पाठताम् । वसु॑ऽरुचि: । सौ॒र्य॒ऽव॒र्च॒स: । अ॒धो॒क् । ताम् । पुण्य॑म् । ए॒व । ग॒न्धम् । अ॒धो॒क् ॥१४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तां वसुरुचिः सौर्यवर्चसोधोक्तां पुण्यमेव गन्धमधोक्।
स्वर रहित पद पाठताम् । वसुऽरुचि: । सौर्यऽवर्चस: । अधोक् । ताम् । पुण्यम् । एव । गन्धम् । अधोक् ॥१४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 7
भाषार्थ -
गन्धर्वाप्सरस राज्य (आधिदैविकार्थ) —(ताम्) उस विराट्-गौ को (सौर्यवर्चसः) सूर्य की दीप्ति से उत्पन्न, (वसुरुचिः) वसुओं के उत्पादन में रुचिवाले मेघ ने, (अधोक्) दोहा (ताम्) उस से (पुण्यम् एव गन्धम्) पवित्रतारूपी गन्ध को ही (अधोक्) दोहा। गन्धर्वाप्सरस राज्य (आधिभौतिकार्थ) —(सौर्यवर्चसः) सूर्य सदृश तेजस्वी, (वसुरुचिः) धन-सम्पत् में रुचि वाले वैश्यवर्ग ने (ताम्) उस विराट-व्यवस्था को (अधोक्) दोहा, (ताम्) उस से (पुण्यम्) पुण्यकर्मरूपी (गन्धम्) सुगन्ध को (एव) ही (अधोक्) दोहा।
टिप्पणी -
गन्धर्वाप्सरस राज्य (आधिदैविकार्थ) —[मन्त्र (६) का चित्ररथः, और मन्त्र (७) का वसुरुचिः मेघ ही है। मेघ जलप्रदान द्वारा वस्तुओं के मल को धोकर उन्हें पवित्र करता है। मेघ अचेतन है, उसमें "रुचि" सम्भव नहीं क्योंकि रुचि चेतन का धर्म है। तो भी कविसम्प्रदायानुसार अचेतन में भी चेतनधर्मों का आरोप हुआ करता है। निरुक्त में भी कहा है कि 'अचेतनान्यप्येवं स्तूयन्ते, यथा अक्षप्रभृतीन्योषधिपर्यन्तानि" (निरुक्त ७।२।७)]। गन्धर्वाप्सरस राज्य (आधिभौतिकार्थ) —[वसुरुचिः= वसुओं के उपार्जन में रुचिवाला वैश्यवर्ग। यह भी गन्धर्वो और अप्सराओं के राज्य में उपार्जित धन-सम्पत् को, राष्ट्र की वृद्धि निमित्त समर्पित करता रहता है, इस प्रकार पुण्यकर्मों की सुगन्ध को राष्ट्र में प्रसारित करता रहता है।]