अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदोष्णिक्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सेत॑रज॒नानाग॑च्छ॒त्तामि॑तरज॒ना उपा॑ह्वयन्त॒ तिरो॑ध॒ एहीति॑।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । इ॒त॒र॒ऽज॒नान् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । इ॒त॒र॒ऽज॒ना: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । तिर॑:ऽधे । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥१४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सेतरजनानागच्छत्तामितरजना उपाह्वयन्त तिरोध एहीति।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । इतरऽजनान् । आ । अगच्छत् । ताम् । इतरऽजना: । उप । अह्वयन्त । तिर:ऽधे । आ । इहि । इति ॥१४.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(सा) वह विराट्-व्यवस्था (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई (सा) वह (इतरजनान्) गन्धर्वाप्सराओं से भिन्न जनों को (आगच्छत्) प्राप्त हुई, (ताम्) उस को (इतरजनाः) इतरजनों ने (उप) अपने समीप (अह्वयन्त) बुलाया कि (तिरोधे) हे अन्तर्धानरूपिणी ! या कुटिलता का धारण-पोषण करने वाली ! (एहि) आ, (इति) इस प्रकार।
टिप्पणी -
[इस विराट-व्यवस्था को "इतरजन व्यवस्था" कहा है। इतरजन का अर्थ है भिन्न प्रकार के जन। इस से पूर्व गन्धर्वो और अप्सराओं का आधिभौतिक वर्णन हुआ है। इतरजन उन से भिन्न प्रकार के हैं। जैसी राज्यव्यवस्था गन्धर्वो और अप्सराओं की है, उस से भिन्न प्रकार की राज्यव्यवस्था इतरजनों की है। पूर्वकथित राज्य-व्यवस्था तो पुण्यकर्मों की है, परन्तु इतरजनों की राज्यव्यवस्था पापकर्मों की है (मन्त्र १२)। तिरोधे ! = इतरजनों की विराट-व्यवस्था 'तिरोधा' रूप है। 'तिरोधा' का अर्थ है तिरोधान अर्थात् गुप्तरूप से कार्य करना। पापकर्म गुप्तरूप में ही किये जाते हैं (मन्त्र (१२), तथा तिरोधा का अर्थ यह भी है कि कुटिलता का धारण-पोषण करने वाली व्यवस्था। यह भी पापमयी व्यवस्था है, जिसे कि "इतरजन" अपनाते हैं। तिरः (कुटिलता, टेढ़ापन+धा (धारणपोषण)]।