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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 16
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - साम्न्यनुष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    तद्वि॒षं स॒र्पा उप॑ जीवन्त्युपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । वि॒षम् । स॒र्पा: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । उ॒प॒ऽजी॒व॒नीय॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्विषं सर्पा उप जीवन्त्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । विषम् । सर्पा: । उप । जीवन्ति । उपऽजीवनीय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 5; मन्त्र » 16

    भाषार्थ -
    (तत्) उस (विषम्, उप) विष के आश्रय (सर्पाः) सर्पप्रकृति वाले मनुष्य (जीवन्ति) जीवित रहते हैं (यः) जो (एवम्) इस प्रकार इस तथ्य को (वेद) जानता है, वह (उपजीवनीयः) अन्यों के अर्थात् अन्य विष प्रयोक्ताओं के जीवनों का आश्रय (भवति) हो जाता है।

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