अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तां र॑ज॒तना॑भिः काबेर॒कोधो॒क्तां ति॑रो॒धामे॒वाधो॑क्।
स्वर सहित पद पाठताम् । र॒ज॒तऽना॑भि: । का॒बे॒र॒क: । अ॒धो॒क् । ताम् । ति॒र॒:ऽधाम् । ए॒व । अ॒धो॒क् ॥१४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
तां रजतनाभिः काबेरकोधोक्तां तिरोधामेवाधोक्।
स्वर रहित पद पाठताम् । रजतऽनाभि: । काबेरक: । अधोक् । ताम् । तिर:ऽधाम् । एव । अधोक् ॥१४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(ताम्) उस [इतरजन व्यवस्थारूपी] विराट-गौ को, (रजतनाभिः) मानो नाभिनाल१ द्वारा प्राप्त रजतादि सम्पत्ति वाले (काबेरकः= कावेरकः१) और कुत्सित वीरता वाले कुबेर ने (अधोक्) दोहा (ताम्) उस विराट् से (तिरोधाम्) तिरोधान अर्थात् गुप्तरूप से कार्य करना तथा कुटिलता को (एव) ही (अधोक्) उस ने दोहा।
टिप्पणी -
[काबेरकः= का+वीर् (शूरवीर विक्रान्तौ; चुरादिः) +अच्+कः। कुत्सितवीर या कावीरः यथा “कापुरुष"। रजतनाभिः= माता से जन्मलाभ करते ही जो प्रभूत रजत आदि का स्वामी बन गया है वह। "इतरजन" राज्य में कुबेर था बछड़ा, और रजतनाभि कुत्सितवीर था दोग्धा। इसे कुत्सितवीर इस लिये कहा है कि इसकी वीरता, तिरोधान को तथा कुटिल कर्मों को ही दोहरूप में प्राप्त करती है।] [१. "कावेरक:" K2, तथा BP2 पाण्डुलिपियों के पाठ। कावेरकः, यथा "कापुरूषः"। तथा "रजतनाभिः" द्वारा यह सूचित किया है कि नाभिनाल द्वारा निजमाता के साथ सम्बन्ध होने से, पुत्र के नाते, पुत्र निज माता की रजतादि सम्पत्ति का उत्तराधिकारी हो जाता है।]