अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - साम्नी भुरिग्बृहती
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
वि॒द्योत॑मानः॒ प्रति॑ हरति॒ वर्ष॒न्नुद्गा॑यत्युद्गृ॒ह्णन्नि॒धन॑म्। नि॒धनं॒ भूत्याः॑ प्र॒जायाः॑ पशू॒नां भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽद्योत॑मान: । प्रति॑ । ह॒र॒ति॒ । वर्ष॑न् । उत् । गा॒य॒ति॒ । उ॒त्ऽगृ॒ह्णन् । नि॒ऽधन॑म् । नि॒ऽधन॑म् । भूत्या॑: । प्र॒ऽजाया॑: । प॒शू॒नाम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्योतमानः प्रति हरति वर्षन्नुद्गायत्युद्गृह्णन्निधनम्। निधनं भूत्याः प्रजायाः पशूनां भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठविऽद्योतमान: । प्रति । हरति । वर्षन् । उत् । गायति । उत्ऽगृह्णन् । निऽधनम् । निऽधनम् । भूत्या: । प्रऽजाया: । पशूनाम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 5;
मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(तस्मै) उस अतिथिपति के लिये (अभ्रः भवन्) मेघ होता हुआ (हिङ्कृणोति) हिंङ शब्द का उच्चारण करता है, (स्तनयन प्रस्तौति) गर्जता हुआ प्रस्ताव करता है, गान आरम्भ करता है, (वर्षन उद्गायति) बरसता हुआ ऊच्चैः गान अर्थात् उद्गीथ करता है, (विद्योतमानः प्रतिहरति) विद्युत् रूप में चमकता हुआ प्रतिहार अर्थात् उपसंहार करता है, (उद्गृह्णन्१ निधनम्) वर्षा के पश्चात् अन्तरिक्ष में ऊपर चढ़ा हुआ (निधनम्) सामगान की सम्पूर्णता करता है। (यः एवं विद्वान्) जो अतिथिपति इस प्रकार जानता है वह (भूत्याः, प्रजायाः पशूनाम्) सम्पत्ति का, प्रजा का, पशुओं का (निधनम् भवति) निधिरूप हो जाता है।
टिप्पणी -
[निधनम् = नितरां धनं यस्मिन् तत्। मन्त्र ७ में "उद्गायति" से पहिले "प्रतिहरति" का वर्णन या तो अथर्ववेदपाठी द्वारा या छापे खाने द्वारा हुआ प्रतीत होता है। यह स्थान विपर्यास है]। [१. मेघ में जब पानी भरा रहता है तो भारी होने से मेघ वायुमण्डल के नीचे के स्तर में हुआ वर्षा करता है, धीर वर्षा के पश्चात् हलका होकर वायुमण्डल के ऊपर के स्तरों में चढ़ जाता है।]