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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 57

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 4
    सूक्त - विश्वमित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-५७

    शु॒ष्मिन्त॑मं न ऊ॒तये॑ द्यु॒म्निनं॑ पाहि॒ जागृ॑विम्। इन्द्र॒ सोमं॑ शतक्रतो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ष्मिन्ऽत॑मम् । न॑: । ऊ॒तये॑ । द्यु॒म्निन॑म् । पा॒हि॒ । जागृ॑विम् ॥ इन्द्र॑ । सोम॑म् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो॒ ॥५७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुष्मिन्तमं न ऊतये द्युम्निनं पाहि जागृविम्। इन्द्र सोमं शतक्रतो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युष्मिन्ऽतमम् । न: । ऊतये । द्युम्निनम् । पाहि । जागृविम् ॥ इन्द्र । सोमम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥५७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    (শতক্রতো) হে শত কর্ম ও বুদ্ধিসম্পন্ন (ইন্দ্র) ইন্দ্র! [ঐশ্বর্যবান রাজন্] (নঃ) আমাদের (ঊতয়ে) রক্ষার জন্য (শুষ্মিন্তমম্) অত্যন্ত বলশালী/বলবান্, (দ্যুম্নিনম্) অত্যন্ত ধনী বা যশস্বী এবং (জাগৃবিম্) জাগ্রত/জাগরুক [বিচক্ষণ] পুরুষের এবং (সোমম্) ঐশ্বর্যের (পাহি) রক্ষা করো।।৪।।

    भावार्थ - রাজা ধর্মাত্মা সাহসী বীরদের এবং সকলের ঐশ্বর্যের যথাবৎ রক্ষা করে প্রজাদের পালন করুক।।১।।

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