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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 12
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अप्सवितारौ देवते छन्दः - भूरिक् अत्यष्टि, स्वरः - गान्धारः
    15

    प॒वित्रे॑ स्थो वैष्ण॒व्यौ सवि॒तुर्वः॑ प्रस॒व उत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य्य॑स्य रश्मिभिः॑। देवी॑रापोऽअग्रेगुवोऽअग्रेपु॒वोऽग्र॑ऽइ॒मम॒द्य य॒ज्ञं न॑य॒ताग्रे॑ य॒ज्ञप॑तिꣳ सु॒धातुं॑ य॒ज्ञप॑तिं देव॒युव॑म्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒वित्रे॒ऽइति॑ प॒वित्रे॑। स्थः॒। वै॒ष्ण॒व्यौ᳖। स॒वि॒तुः। वः॒। प्र॒स॒व इति॑ प्र॒ऽस॒वे। उत्। पु॒ना॒मि॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। देवीः॑। आ॒पः॒। अ॒ग्रे॒गु॒व॒ इत्य॑ग्रेऽगुवः। अ॒ग्रे॒पु॒व॒ इत्य॑ग्रेऽपुवः॒। अग्रे॑। इ॒मम्। अ॒द्य। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒। अग्रे॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। सु॒धातु॒मिति॑ सु॒धाऽतु॑म्। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ यज्ञऽप॑तिम्। दे॒व॒युव॒मिति॑ देव॒ऽयुव॑म् ॥१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । देवीरापोऽअग्रेगुवो अग्रेपुवोग्रऽइममद्ययज्ञन्नयताग्रे यज्ञपतिँ सुधातुँ यज्ञपतिन्देवयुवम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पवित्रेऽइति पवित्रे। स्थः। वैष्णव्यौ। सवितुः। वः। प्रसव इति प्रऽसवे। उत्। पुनामि। अच्छिद्रेण। पवित्रेण। सूर्य्यस्य। रश्मिभिरिति रश्मिऽभिः। देवीः। आपः। अग्रेगुव इत्यग्रेऽगुवः। अग्रेपुव इत्यग्रेऽपुवः। अग्रे। इमम्। अद्य। यज्ञम्। नयत। अग्रे। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। सुधातुमिति सुधाऽतुम्। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। देवयुवमिति देवऽयुवम्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् लोगो! तुम जैसे (सवितुः) परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुस इस संसार में (अच्छिद्रेण) निर्दोष और (पवित्रेण) पवित्र करने का हेतु जो (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (रश्मिभिः) किरण हैं, उन से (वैष्णव्यौ) यज्ञसम्बन्धी प्राण और अपान की गति तथा (पवित्रे) पदार्थों के भी पवित्र करने में हेतु (स्थः) हों और जैसे उक्त सूर्य्य की किरणों से (अग्रेगुवः) आगे समुद्र वा अन्तरिक्ष में चलनेवाले (अग्रेपुवः) प्रथम पृथिवी में रहने वाली सोम ओषधि के सेवन तथा (देवीः) दिव्यगुणयुक्त (वः) वह (आपः) जल पवित्र हों, वैसे (नयत) पवित्र पदार्थों का होम अग्नि में करो, वैसे ही मैं भी (अद्य) आज के दिन (इमम्) इस (यज्ञम्) पूर्वोक्त क्रियासम्बन्धी यज्ञ को प्राप्त करके (अग्रे) जो प्रथम (सुधातुम्) श्रेष्ठ मन आदि इन्द्रिय और सुवर्ण आदि धन वाला (यज्ञपतिम्) यज्ञ का नियम से पालक तथा (देवयुवम्) विद्वान् और श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त होने वा उनका प्राप्त कराने (यज्ञपतिम्) यज्ञ की इच्छा करने वाला मनुष्य है, उसको (उत्पुनामि) पवित्र करता हूं॥१२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो पदार्थ संयोग से विकार को प्राप्त होते हैं, वे अग्नि के निमित्त से अतिसूक्ष्म परमाणुरूप होकर वायु के बीच रहा करते हैं और कुछ शुद्ध भी हो जाते हैं, परन्तु जैसी यज्ञ के अनुष्ठान से वायु और वृष्टि, जल की उत्तम शुद्धि और पुष्टि होती है, वैसी दूसरे उपाय से कभी नहीं हो सकती इससे विद्वानों को चाहिये कि होमक्रिया से शुद्ध किये वायु, अग्नि, जल आदि पदार्थ वा शिल्पविद्या से अच्छी-अच्छी सवारी बना के अनेक प्रकार के लाभ उठावें अर्थात् अपनी मनोकामना सिद्ध करके औरों की भी कामनासिद्धि करें। जो जल इस पृथिवी से अन्तरिक्ष को चढ़कर, वहां से लौटकर, फिर पृथिवी आदि पदार्थों को प्राप्त होते हैं, वे प्रथम और जो मेघ में रहने वाले हैं, वे दूसरे कहाते हैं। ऐसी शतपथ-ब्राह्मण में मेघ का वृत्र तथा सूर्य्य का इन्द्र नाम से वर्णन करके युद्धरूप कथा के प्रकाश से मेघविद्या दिखलाई है॥१२॥

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