यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 2
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
47
वसोः॑ प॒वित्र॑मसि॒ द्यौर॑सि पृथि॒व्यसि मात॒रिश्व॑नो घ॒र्मोऽसि वि॒श्वधा॑ऽअसि। प॒र॒मेण॒ धाम्ना॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्॥२॥
स्वर सहित पद पाठवसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। द्यौः। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒। मा॒त॒रिश्व॑नः। घ॒र्मः। असि॒। वि॒श्वधा॒ इति॑ वि॒श्वधाः॑। अ॒सि॒। प॒र॒मेण॑। धाम्ना॑। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त् ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मा सि विश्वधाऽअसि। परमेण धाम्ना दृँहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिह्वार्षीत्॥
स्वर रहित पद पाठ
वसोः। पवित्रं। असि। द्यौः। असि। पृथिवी। असि। मातरिश्वनः। घर्मः। असि। विश्वधा इति विश्वधाः। असि। परमेण। धाम्ना। दृꣳहस्व। मा। ह्वाः। मा। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। ह्वार्षीत्॥२॥
विषय - वह यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे विद्यायुक्त मनुष्य! तू जो (वसोः) यज्ञ (पवित्रम्) शुद्धि का हेतु (असि) है। (द्यौः) जो विज्ञान के प्रकाश का हेतु और सूर्य की किरणों में स्थिर होने वाला (असि) है। जो (पृथिवी) वायु के साथ देशदेशान्तरों में फैलनेवाला (असि) है। जो (मातरिश्वनः) वायु को (घर्मः) शुद्ध करनेवाला (असि) है। जो (विश्वधाः) संसार का धारण करनेवाला (असि) है तथा जो (परमेण) उत्तम (धाम्ना) स्थान से (दृꣳहस्व) सुख का बढ़ानेवाला है। इस यज्ञ का (मा) मत (ह्वाः) त्याग कर तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यज्ञ की रक्षा करने वाला यजमान भी उसको (मा) न (ह्वार्षीत्) त्यागे। धात्वर्थ के अभिप्राय से यज्ञ शब्द का अर्थ तीन प्रकार का होता है अर्थात् एक जो इस लोक और परलोक के सुख के लिये विद्या, ज्ञान और धर्म के सेवन से वृद्ध अर्थात् बड़े-बड़े विद्वान् हैं, उनका सत्कार करना। दूसरा अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों के मेल और विरोध के ज्ञान से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना और तीसरा नित्य विद्वानों का समागम अथवा शुभगुण विद्या सुख धर्म और सत्य का नित्य दान करना है॥२॥
भावार्थ - मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं, उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायुरूपी प्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृद्धि, परस्पर कोमलता से वर्त्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिये सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिये विद्या और पुरुषार्थ के साथ प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये॥२॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal