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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 24
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - द्योविद्युतौ देवते छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    21

    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑देऽध्वर॒कृतं॑ दे॒वेभ्य॒ऽइन्द्र॑स्य बा॒हुर॑सि॒ दक्षि॑णः स॒हस्र॑भृष्टिः श॒तते॑जा वा॒युर॑सि ति॒ग्मते॑जा द्विष॒तो व॒धः॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। अ॒ध्व॒र॒कृत॒मित्य॑ध्वर॒ऽकृत॑म् दे॒वेभ्यः॑। इन्द्र॑स्य। बा॒हुः। अ॒सि॒। दक्षि॑णः। स॒हस्र॑भृष्टि॒रिति॑ स॒हस्र॑ऽभृष्टिः। श॒तते॑जा॒ इति श॒तऽते॑जाः। वा॒युः। अ॒सि॒। ति॒ग्मते॑जा॒ इति॑ ति॒ग्मऽते॑जाः। द्वि॒ष॒तः। व॒धः ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददेध्वरकृतन्देवेभ्यऽइन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणः सहस्रभृष्टिः शततेजा वायुरसि तिग्मतेजा द्विषतो बधः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे। अध्वरकृतमित्यध्वरऽकृतम् देवेभ्यः। इन्द्रस्य। बाहुः। असि। दक्षिणः। सहस्रभृष्टिरिति सहस्रऽभृष्टिः। शततेजा इति शतऽतेजाः। वायुः। असि। तिग्मतेजा इति तिग्मऽतेजाः। द्विषतः। वधः॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -
    मैं (सवितुः) अन्तर्यामी प्रेरणा करने (देवस्य) सब आनन्द के देने वाले परमेश्वर की (प्रसवे) प्रेरणा में (अश्विनोः) सूर्य्य, चन्द्र और अध्वर्य्युओं के [बाहुभ्याम्] बल और वीर्य्य से तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक वायु के (हस्ताभ्याम्) जो कि ग्रहण और त्याग के हेतु उदान और अपान हैं, उन से (देवेभ्यः) विद्वान् वा दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिये (अध्वरकृतम्) यज्ञ से सुखकारक [(त्वा) उस] कर्म को (आददे) अच्छे प्रकार ग्रहण करता हूं और मेरा किया हुआ जो यज्ञ है सो (इन्द्रस्य) सूर्य्य का (सहस्रभृष्टिः) जिसमें अनेक प्रकार के पदार्थों के पचाने का सामर्थ्य वा (शततेजाः) अनेक प्रकार का तेज तथा (दक्षिणः) प्राप्त करने वाला (बाहुः) किरणसमूह (असि) है और जिस (इन्द्रस्य) सूर्य्य वा मेघमण्डल का (तिग्मतेजाः) तीक्ष्ण तेज वाला (वायुः) वायु हेतु (असि) है, उस से हम को अनेक प्रकार के सुख तथा (द्विषतः) शत्रुओं का (वधः) नाश करना चाहिये॥२४॥

    भावार्थ - ईश्वर आज्ञा करता है कि मनुष्यों को अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ यज्ञ जिस में भौतिक अग्नि के संयोग से ऊपर को अच्छे-अच्छे पदार्थ छोड़े जाते हैं, वह सूर्य्य की किरणों में स्थिर होता है तथा पवन उस को धारण करता है और वह सब के उपकार के लिये हजारों सुखों को प्राप्त कराके दुःखों का विनाश करने वाला होता है॥२४॥

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