यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 25
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - विराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
9
पृथि॑वि देवयज॒न्योष॑ध्यास्ते॒ मूलं॒ मा हि॑ꣳसिषं व्र॒जं ग॑च्छ गो॒ष्ठानं वर्ष॑तु ते॒ द्यौर्ब॑धा॒न दे॑व सवितः पर॒मस्यां॑ पृथि॒व्या श॒तेन॒ पाशै॒र्योऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मस्तमतो॒ मा मौ॑क्॥२५॥
स्वर सहित पद पाठपृथि॑वि। दे॒व॒य॒ज॒नीति॑ देवऽयजनि। ओष॑ध्याः। ते॒। मूल॑म्। मा। हि॒ꣳसि॒ष॒म्। व्र॒जम्। ग॒च्छ॒। गो॒ष्ठान॑म्। गो॒स्थान॒मिति॑ गो॒ऽस्थान॑म्। वर्ष॑तु। ते॒। द्यौः। ब॒धा॒न। दे॒व॒। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प॒र॒म्। अस्या॑म्। पृ॒थि॒व्याम्। श॒तेन॑। पाशैः॑। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। अतः॑। मा। मौ॒क् ॥२५॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिवि देवयजन्योषध्यास्ते मूलम्मा हिँसिषँव्रजङ्गच्छ गोष्ठानँवर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः परमस्याम्पृथिव्याँ शतेन पाशैर्या स्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मस्तमतो मा मौक् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पृथिवि। देवयजनीति देवऽयजनि। ओषध्याः। ते। मूलम्। मा। हिꣳसिषम्। व्रजम्। गच्छ। गोष्ठानम्। गोस्थानमिति गोऽस्थानम्। वर्षतु। ते। द्यौः। बधान। देव। सवितरिति सवितः। परम्। अस्याम्। पृथिव्याम्। शतेन। पाशैः। यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः। तम्। अतः। मा। मौक्॥२५॥
विषय - फिर उक्त यज्ञ कहाँ जाके क्या करने वाला होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे (देव) सूर्य्यादि जगत् के प्रकाश करने तथा (सवितः) राज्य और ऐश्वर्य्य के देने वाले परमेश्वर! (ते) आपकी कृपा से मैं (देवयजनि) विद्वानों के यज्ञ करने की जगह (ते) यह जो (पृथिवि) भूमि है, उसके [और (ओषध्याः) जो यवादि ओषधि हैं] उनके (मूलम्) वृद्धि करने वाले मूल को (मा हिꣳसिषम्) नाश न करूँ और मैं (पृथिव्याम्) अनेक प्रकार सुखदायक भूमि में (यः) जिस यज्ञ का अनुष्ठान करता हूं, वह (व्रजम्) जलवृष्टिकारक मेघ को (गच्छ) प्राप्त हो, वहां जाकर (गोष्ठानम्) सूर्य्य की किरणों के गुणों से (वर्षतु) वर्षाता है और (द्यौः) सूर्य्य के प्रकाश को (वर्षतु) वर्षाता है। हे वीर पुरुषो! आप (अस्याम्) इस उत्कृष्ट पृथिवी में (यः) जो कोई अधर्मात्मा डाकू (अस्मान्) सब के उपकार करने वाले धर्मात्मा सज्जन हम लोगों से (द्वेष्टि) विरोध करता है (च) और (यम्) जिस दुष्ट शत्रु से (वयम्) धार्मिक शूर हम लोग (द्विष्मः) विरोध करें, (तम्) उस दुष्ट (परम्) शत्रु को (शतेन) अनेक (पाशैः) बन्धनों से (बधान) बाँधो और उसको (अतः) इस बन्धन से कभी (मा मौक्) मत छोड़ो॥२५॥
भावार्थ - ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान् मनुष्यों को पृथिवी का राज्य तथा उसी पृथिवी में तीन प्रकार के यज्ञ और ओषधियाँ इनका नाश कभी न करना चाहिये। जो यज्ञ अग्नि में हवन किये हुए पदार्थों का धूम मेघमण्डल को जाकर शुद्धि के द्वारा अत्यन्त सुख उत्पन्न करने वाला होता है, इससे यह यज्ञ किसी पुरुष को कभी छोड़ने योग्य नहीं है तथा जो दुष्ट मनुष्य हैं, उनको इस पृथिवी पर अनेक बन्धनों से बांधे और उनको कभी न छोड़ें, जिससे कि वे दुष्ट कर्मों से निवृत्त हों और सब मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर ईर्ष्या-द्वेष से अलग होकर एक-दूसरे की सब प्रकार सुख की उन्नति के लिये सदा यत्न करें॥२५॥
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