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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 29
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता सर्वस्य छन्दः - त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳ रक्षः॒ प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳ रक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः। अनि॑शितोऽसि सपत्न॒क्षिद्वा॒जिनं॑ त्वा वाजे॒ध्यायै॒ सम्मा॑र्ज्मि। प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳ रक्षः॒ प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳ रक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः। अनि॑शितासि सपत्न॒क्षिद्वा॒जिनीं॑ त्वा वाजे॒ध्यायै॒ सम्मा॑र्ज्मि॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रत्यु॑ष्ट॒मिति॒ प्रति॑ऽउष्टम्। रक्षः॑। प्रत्यु॑ष्टा॒ इति॒ प्रति॑ऽउष्टाः। अरा॑तयः। निष्ट॑प्तम्। निस्त॑प्त॒मिति॒ निःऽत॑प्तम्। रक्षः॑। निष्ट॑प्ताः। निस्त॑प्ता॒ इति॒ निःऽत॑प्ताः। अरा॑तयः। अनि॑शित॒ इत्यनि॑ऽशितः। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒क्षिदिति॑ सपत्न॒ऽक्षित्। वा॒जिन॑म्। त्वा॒। वा॒जे॒ध्याया॒ इति॑ वाजऽइ॒ध्यायै॑। सम्। मा॒र्ज्मि॒। प्रत्यु॑ष्ट॒मिति॒ प्रति॑ऽउष्टम्। रक्षः॑। प्रत्यु॑ष्टा॒ इति॒ प्रति॑ऽउष्टाः। अरा॑तयः। निष्ट॑प्तम्। निस्त॑प्त॒मिति॒ निःत॑प्तम्। रक्षः॑। निष्ट॑प्ताः। निस्त॑प्ता॒ इति॒ निःत॑प्ताः। अरा॑तयः। अनि॑शि॒तेत्यनि॑ऽशिता। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒क्षिदिति॑ सपत्न॒ऽक्षित्। वा॒जिनी॑म्। त्वा॒। वा॒जे॒ध्याया॒ इति॑ वाजऽइ॒ध्यायै॑। सम्। मा॒र्ज्मि॒ ॥२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्युष्टँ रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्तँ रक्षो निष्टप्ताऽअरातयः । अनिशितोसि सपत्नक्षिद्वाजिनन्त्वा वाजेध्यायै सम्मार्ज्मि । प्रत्युष्टँ रक्षः प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्तँ रक्षो निष्टप्ताऽअरातयः । अनिशितासि सपत्नक्षिद्वाजिनीन्त्वा वाजेध्यायै सम्मार्ज्मि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्युष्टमिति प्रतिऽउष्टम्। रक्षः। प्रत्युष्टा इति प्रतिऽउष्टाः। अरातयः। निष्टप्तम्। निस्तप्तमिति निःऽतप्तम्। रक्षः। निष्टप्ताः। निस्तप्ता इति निःऽतप्ताः। अरातयः। अनिशित इत्यनिऽशितः। असि। सपत्नक्षिदिति सपत्नऽक्षित्। वाजिनम्। त्वा। वाजेध्याया इति वाजऽइध्यायै। सम्। मार्ज्मि। प्रत्युष्टमिति प्रतिऽउष्टम्। रक्षः। प्रत्युष्टा इति प्रतिऽउष्टाः। अरातयः। निष्टप्तम्। निस्तप्तमिति निःतप्तम्। रक्षः। निष्टप्ताः। निस्तप्ता इति निःतप्ताः। अरातयः। अनिशितेत्यनिऽशिता। असि। सपत्नक्षिदिति सपत्नऽक्षित्। वाजिनीम्। त्वा। वाजेध्याया इति वाजऽइध्यायै। सम्। मार्ज्मि॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 29
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    पदार्थ -
    मैं जिस [अनिशितः] अतिविस्तृत [सपत्नक्षित्] शत्रुओं के नाश करने वाले संग्राम से (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और जिससे (प्रत्युष्टा अरातयः) सत्यविरोधी अच्छी प्रकार दाहरूप दण्ड को प्राप्त (असि) होते हैं, वा जिस बन्धन से (निष्टप्तं रक्षः) बांधने योग्य (निष्टप्ता अरातयः) विद्या के विघ्न करने वाले निरन्तर संताप को प्राप्त होते हैं, (त्वा) उस (वाजिनम्) वेग आदि गुण वाले संग्राम को (वाजेध्यायै) जो कि अन्न आदि पदार्थों से बलवान् करने के योग्य सेना है, उसके लिये युद्ध के साधनों को (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार शुद्ध करता हूं, अर्थात् उनके दोषों का विनाश करता हूं और मैं जिस (सपत्नक्षित्) शत्रु का नाश करने वाले और (अनिशिता) अति विस्तारयुक्त सेना से (प्रत्युष्टं रक्षः) परसुख का न सहने वाला मनुष्य वा (प्रत्युष्टा अरातयः) उक्त अवगुणवाले अनेक मनुष्य (निष्टप्तं रक्षः) जुआ खेलने और परस्त्रीगमन करने तथा (निष्टप्ता अरातयः) औरों को सब प्रकार से दुःख देने वाले मनुष्य अच्छी प्रकार निकाले जाते हैं, (त्वा) उस (वाजिनीम्) बल और वेग आदि गुणवाली सेना को (वाजेध्यायै) बहुत साधनों से प्रकाशित करने के लिये (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से शुद्ध करता हूं। [यह प्रथम अर्थ हुआ᳕॥ और जो कि (अनिशितः) बड़ी क्रियाओं से सिद्ध होने योग्य वा (सपत्नक्षित्) दोषों वा शत्रुओं के विनाश करनेहारे (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और (प्रत्युष्टा अरातयः) जिसमें सत्यविरोधी अच्छी प्रकार दाहरूप दण्ड को प्राप्त (असि) होते हैं, वा (निष्टप्तं रक्षः) जिस बन्धन से बांधने योग्य (निष्टप्ता अरातयः) विद्या के विघ्न करने वाले निरन्तर सन्ताप को प्राप्त होते हैं (त्वा) उस (वाजिनम्) यज्ञ को (वाजेध्यायै) अन्न आदि पदार्थों के प्रकाशित होने के लिये (संमार्ज्मि) शुद्धता से सिद्ध करता हूं [इस प्रकार जिस (सपत्नक्षित्) शत्रुओं का नाश करने वाली (अनिशिता) अतिविस्तारयुक्त क्रिया से (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और (प्रत्युष्टा अरातयः) दुर्गुण तथा नीच मनुष्य नष्ट होते हैं, (निष्टप्तं रक्षः) काम, क्रोध आदि राक्षसी भाव दूर होते हैं, (निष्टप्ता अरातयः) जिसमें दुःख तथा दुर्गन्ध आदि दोष नष्ट [(असि)] होते हैं, (त्वा) उस (वाजिनीम्) सत्क्रिया को (वाजेध्यायै) अन्न आदि पदार्थों के प्रकाशित होने के लिये (सम्मार्ज्मि) भली प्रकार सिद्ध करता हूं। इसी प्रकार आप भी इस यज्ञ तथा सत्क्रिया को पवित्रतापूर्वक सिद्ध करो] यह दूसरा अर्थ हुआ॥२९॥

    भावार्थ - ईश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्यों को विद्या और शुभ गुणों के प्रकाश और दुष्ट शत्रुओं की निवृत्ति के लिये नित्य पुरुषार्थ करना चाहिये तथा सदैव श्रेष्ठ शिक्षा शस्त्र-अस्त्र और सत्पुरुषयुक्त उत्तम सेना से श्रेष्ठों की रक्षा तथा दुष्टों का विनाश करना चाहिये, जिसे करके अशुद्धि आदि दोषों के विनाश होने से सर्वत्र पवित्रता फैले॥२९॥

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