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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 21
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒यम॒ग्निः स॑ह॒स्रिणो॒ वाज॑स्य श॒तिन॒स्पतिः॑। मू॒र्धा क॒वी र॑यी॒णाम्॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। अ॒ग्निः। स॒ह॒स्रिणः॑। वाज॑स्य। श॒तिनः॑। पतिः॑। मू॒र्द्धा। क॒विः। र॒यी॒णाम् ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमग्निः सहस्रिणो वाजस्य शतिनस्पतिः । मूर्धा कवी रयीणाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। अग्निः। सहस्रिणः। वाजस्य। शतिनः। पतिः। मूर्द्धा। कविः। रयीणाम्॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 21
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (अयम्) यह (अग्निः) हेमन्त ऋतु में वर्त्तमान (सहस्रिणः) प्रशस्त असंख्य पदार्थों से युक्त (शतिनः) प्रशंसित गुणों के सहित अनेक प्रकार वर्त्तमान (वाजस्य) अन्न तथा (रयीणाम्) धनों का (पतिः) रक्षक (मूर्द्धा) उत्तम अङ्ग के तुल्य (कविः) समर्थ है, वैसे ही तुम लोग भी हो॥२१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या और युक्ति से सेवन किया अग्नि बहुत अन्न धन प्राप्त कराता है, वैसे ही सेवन किया पुरुषार्थ मनुष्यों को ऐश्वर्यवान् कर देता है॥२१॥

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