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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 38
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    भ॒द्रो नो॑ऽअ॒ग्निराहु॑तो भ॒द्रा रा॒तिः सु॑भग भ॒द्रो अ॑ध्व॒रः। भ॒द्राऽउ॒त प्रश॑स्तयः॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रः। नः॒। अ॒ग्निः। आहु॑त॒ इत्याऽहु॑तः। भ॒द्रा। रा॒तिः। सु॒भ॒गेति॑ सुऽभग। भ॒द्रः। अ॒ध्व॒रः। भ॒द्राः। उ॒त। प्रश॑स्तय॒ इति॒ प्रऽश॑स्तयः ॥३८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रो नोऽअग्निराहुतो भद्रा रातिः सुभग भद्रोऽअध्वरः । भद्राऽउत प्रशस्तयः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रः। नः। अग्निः। आहुत इत्याऽहुतः। भद्रा। रातिः। सुभगेति सुऽभग। भद्रः। अध्वरः। भद्राः। उत। प्रशस्तय इति प्रऽशस्तयः॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 38
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    पदार्थ -
    हे (सुभग) सुन्दर ऐश्वर्य वाले विद्वान् पुरुष! जैसे (आहुतः) धर्म के तुल्य सेवन किया मित्ररूप (अग्निः) अग्नि (भद्रः) सेवने योग्य (भद्रा) कल्याणकारी (रातिः) दान (भद्रः) कल्याणकारी (अध्वरः) रक्षणीय व्यवहार (उत) और (भद्राः) कल्याण करने वाली (प्रशस्तयः) प्रशंसा होवें, वैसे आप (नः) हमारे लिये हूजिये॥३८॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार सेवन किये जगत् के पदार्थ सुखकारी होते हैं, वैसे आप्त विद्वान् लोगों को भी जानें॥३८॥

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