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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 51
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ वा॒चो मध्य॑मरुहद् भुर॒ण्युर॒यम॒ग्निः सत्प॑ति॒श्चेकि॑तानः। पृ॒ष्ठे पृ॑थि॒व्या निहि॑तो॒ दवि॑द्युतदधस्प॒दं कृ॑णुतां॒ ये पृ॑त॒न्यवः॑॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। वा॒चः। मध्य॑म्। अ॒रु॒ह॒त्। भु॒र॒ण्युः। अ॒यम्। अ॒ग्निः। सत्प॑ति॒रिति॒ सत्ऽप॑तिः। चेकि॑तानः। पृ॒ष्ठे। पृ॒थि॒व्याः। निहि॑त॒ इति॒ निऽहि॑तः। दवि॑द्युतत्। अ॒ध॒स्प॒दम्। अ॒धः॒प॒दमित्य॑धःऽप॒दम्। कृ॒णु॒ता॒म्। ये। पृ॒त॒न्यवः॑ ॥५१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वाचो मध्यमरुहद्गुरण्युरयमग्निः सत्पतिश्चेकितानः । पृष्ठे पृथिव्या निहितो दविद्युतदधस्पदङ्कृणुताँये पृतन्यवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाचः। मध्यम्। अरुहत्। भुरण्युः। अयम्। अग्निः। सत्पतिरिति सत्ऽपतिः। चेकितानः। पृष्ठे। पृथिव्याः। निहित इति निऽहितः। दविद्युतत्। अधस्पदम्। अधःपदमित्यधःऽपदम्। कृणुताम्। ये। पृतन्यवः॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 51
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् पुरुष! (चेकितानः) विज्ञानयुक्त (सत्पतिः) श्रेष्ठों के रक्षक आप (वाचः) वाणी के (मध्यम्) बीच हुए उपदेश को प्राप्त हो के जैसे (अयम्) यह (भुरण्युः) पुष्टिकर्त्ता (अग्निः) विद्वान् (पृथिव्याः) भूमि के (पृष्ठे) ऊपर (निहितः) निरन्तर स्थिर किया (दविद्युतत्) उपदेश से सब को प्रकाशित करता और धर्म पर (आ, अरुहत्) आरूढ़ होता है, उस के साथ (ये) जो लोग (पृतन्यवः) युद्ध के लिये सेना की इच्छा करते हैं, उन को (अधस्पदम्) अपने अधिकार से च्युत जैसे हों, वैसा (कृणुताम्) कीजिये॥५१॥

    भावार्थ - विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि जैसे ईश्वर ब्रह्माण्ड में सूर्यलोक को स्थापन करके सब को सुख पहुँचाता है, वैसे ही राज्य में विद्या और बल को धारण कर शत्रुओं को जीत के प्रजा के मनुष्यों का सुख से उपकार करें॥५१॥

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