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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 13
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    तनू॒नपा॒च्छुचि॑व्रतस्तनू॒पाश्च॒ सर॑स्वती।उ॒ष्णिहा॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं दि॑त्य॒वाड् गौर्वयो॑ दधुः॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तनू॒नपा॒दिति॒ तनू॒ऽनपा॑त्। शुचि॑ऽव्रतः। त॒नू॒पा इति॑ तनू॒ऽपाः। च॒। सर॑स्वती। उ॒ष्णिहा॑। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। दि॒त्य॒वाडिति॑ दित्य॒ऽवाट्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तनूनपाच्छुचिव्रतस्तनूपाश्च सरस्वती । उष्णिहा छन्द इन्द्रियन्दित्यवाड्गौर्वयो दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तनूनपादिति तनूऽनपात्। शुचिऽव्रतः। तनूपा इति तनूऽपाः। च। सरस्वती। उष्णिहा। छन्दः। इन्द्रियम्। दित्यवाडिति दित्यऽवाट्। गौः। वयः। दधुः॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 13
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    पदार्थ -
    जैसे (शुचिव्रतः) पवित्र धर्म के आचरण करने (तनूनपात्) शरीर को पड़ने न देने (तनूपाः) किन्तु शरीर की रक्षा करने हारा (च) और (सरस्वती) वाणी तथा (उष्णिहा) उष्णिह (छन्दः) छन्द (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को धारण करता है वा जैसे (दित्यवाट्) खण्डनीय पदार्थों के लिये हित प्राप्त कराने और (गौः) स्तुति करने हारा जन (वयः) इच्छा को बढ़ाता है, वैसे इन सब को विद्वान् लोग (दधुः) धारण करें॥१३॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग पवित्र आचरण वाले हैं और जिनकी वाणी विद्याओं में सुशिक्षा पाई हुई है, वे पूर्ण जीवन के धारण करने को योग्य हैं॥१३॥

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