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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 55
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - स्वराट् शक्वरी स्वरः - धैवतः
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    दे॒वऽइन्द्रो॒ नरा॒शꣳस॑स्रिवरू॒थः सर॑स्वत्या॒श्विभ्या॑मीयते॒ रथः॑। रेतो॒ न रू॒पम॒मृतं॑ ज॒नित्र॒मिन्द्रा॑य॒ त्व॒ष्टा दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः। इन्द्रः॑। नरा॒शꣳसः॑। त्रि॒व॒रू॒थ इति॑ त्रिऽवरू॒थः। सर॑स्वत्या। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। ई॒य॒ते॒। रथः॑। रेतः॑। न। रू॒पम्। अ॒मृत॑म्। ज॒नित्र॑म्। इन्द्रा॑य। त्वष्टा॑। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒याणि॑। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवऽइन्द्रो नराशँसस्त्रिवरूथः सरस्वत्याश्विभ्यामीयते रथः । रेतो न रूपममृतञ्जनित्रमिन्द्राय त्वष्टा दधदिन्द्रियाणि वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। इन्द्रः। नराशꣳसः। त्रिवरूथ इति त्रिऽवरूथः। सरस्वत्या। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। ईयते। रथः। रेतः। न। रूपम्। अमृतम्। जनित्रम्। इन्द्राय। त्वष्टा। दधत्। इन्द्रियाणि। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 55
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जैसे (त्रिवरूथः) तीन अर्थात् भूमि, भूमि के नीचे और अन्तरिक्ष में जिस के घर हैं, वह (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (देवः) विद्वान् (सरस्वत्या) अच्छी शिक्षा की हुई वाणी से (नराशंसः) जो मनुष्यों को भलीभांति शिक्षा देते हैं, उनको (अश्विभ्याम्) आग और पवन से जैसे (रथः) रमणीय रथ (ईयते) पहुंचाया जाता, वैसे अच्छे मार्ग में पहुंचाता है वा जैसे (त्वष्टा) दुःख का विनाश करने हारा (जनित्रम्) उत्तम सुख उत्पन्न करने हारे (अमृतम्) जल और (रेतः) वीर्य्य के (न) समान (रूपम्) रूप को तथा (वसुधेयस्य) संसार के बीच (वसुवने) धन की सेवा करने वाले (इन्द्राय) जीव के लिए (इन्द्रियाणि) कान, आंख आदि इन्द्रियों को (दधत्) धारण करे वा जैसे उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! यदि तुम लोग धर्मसम्बन्धी व्यवहार से धन को इच्छा करो तो जल और आग से चलाये हुए रथ के समान शीघ्र सब सुखों को प्राप्त होओ॥५५॥

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