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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गयप्लात ऋषिः देवता - स्वर्ग्यानौर्देवता छन्दः - यवमध्या गायत्री स्वरः - षड्जः
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    सु॒नाव॒मा रु॑हेय॒मस्र॑वन्ती॒मना॑गसम्। श॒तारि॑त्रा स्वस्तये॑॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒नाव॒मिति॑ सु॒ऽनाव॑म्। आ। रु॒हे॒य॒म्। अस्र॑वन्तीम्। अना॑गसम्। श॒तारि॑त्रा॒मिति॑ श॒तऽअ॑रित्राम्। स्व॒स्तये॑ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुनावमा रुहेयमस्रवन्तीमनागसम् । शतारित्राँ स्वस्तये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुनावमिति सुऽनावम्। आ। रुहेयम्। अस्रवन्तीम्। अनागसम्। शतारित्रामिति शतऽअरित्राम्। स्वस्तये॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे मैं (स्वस्तये) सुख के लिए (अस्रवन्तीम्) छिद्रादि दोष वा (अनागसम्) बनावट के दोषों से रहित (शतारित्राम्) अनेकों लङ्गर वाली (सुनावम्) अच्छे बनी नाव पर (आ, रुहेयम्) चढ़ूं, वैसे इस पर तुम भी चढ़ो॥७॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग बड़ी नावों की अच्छे प्रकार परीक्षा करके और उनमें स्थिर होके समुद्र आदि के पारावार जायें, जिनमें बहुत लङ्गर आदि होवें, वे नावें अत्यन्त उत्तम हों॥७॥

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