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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 14
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इडा॑भिर॒ग्निरीड्यः॒ सोमो॑ दे॒वोऽअम॑र्त्यः।अ॒नु॒ष्टुप् छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं पञ्चा॑वि॒गौर्वयो॑ दधुः॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इडा॑भिः। अ॒ग्निः। ईड्यः॑। सोमः॑। दे॒वः। अम॑र्त्यः। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नुऽस्तुप्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। पञ्चा॑वि॒रिति॒ पञ्च॑ऽअविः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इडाभिरग्निरीड्यः सोमो देवो अमर्त्यः । अनुष्टुप्छन्द इन्द्रियम्पञ्चाविर्गौर्वयो दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इडाभिः। अग्निः। ईड्यः। सोमः। देवः। अमर्त्यः। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। छन्दः। इन्द्रियम्। पञ्चाविरिति पञ्चऽअविः। गौः। वयः। दधुः॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    जैसे (अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशमान (अमर्त्यः) अपने स्वरूप से नाशरहित (सोमः) ऐश्वर्यवान् (ईड्यः) स्तुति करने वा खोजने के योग्य (देवः) दिव्य गुणी (पञ्चाविः) पांच से रक्षा को प्राप्त (गौः) विद्या से स्तुति के योग्य विद्वान् पुरुष (इडाभिः) प्रशंसाओं से (अनुष्टुप्, छन्दः) अनुष्टुप् छन्द (इन्द्रियम्) ज्ञान आदि व्यवहार को सिद्ध करने हारे मन और (वयः) तृप्ति को धारण करे, वैसे इस को सब (दधुः) धारण करें॥१४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग धर्म से विद्या और ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं, वे सब मनुष्यों को विद्या और ऐश्वर्य प्राप्त करा सकते हैं॥१४॥

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