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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 22
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    स्वाहा॑ य॒ज्ञं वरु॑णः। सुक्ष॒त्रो भे॑ष॒जं क॑रत्।अति॑च्छन्दाऽइन्द्रि॒यं बृ॒हदृ॑ष॒भो गौर्वयो॑ दधुः॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। वरु॑णः। सु॒क्ष॒त्र इति॑ सुऽक्ष॒त्रः। भे॒ष॒जम्। क॒र॒त्। अति॑च्छन्दा॒ इत्यति॑ऽछन्दाः। इ॒न्द्रि॒यम्। बृ॒हत्। ऋ॒ष॒भः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहा यज्ञँवरुणः सुक्षत्रो भेषजङ्करत् । अतिच्छन्दा इन्द्रियम्बृहदृषभो गौर्वयो दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहा। यज्ञम्। वरुणः। सुक्षत्र इति सुऽक्षत्रः। भेषजम्। करत्। अतिच्छन्दा इत्यतिऽछन्दाः। इन्द्रियम्। बृहत्। ऋषभः। गौः। वयः। दधुः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! तुम जैसे (वरुणः) श्रेष्ठ (सुक्षत्रः) उत्तम धनवान् जन (स्वाहा) सत्य क्रिया से (यज्ञम्) संगममय (भेषजम्) औषध को (करत्) करे और जो (अतिच्छन्दाः) अतिच्छन्द और (ऋषभः) उत्तम (गौः) बैल (बृहत्) बड़े (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य और (वयः) सुन्दर अपने व्यवहार को धारण करते हैं, वैसे ही सब (दधुः) धारण करें, इसको जानो॥२२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग अच्छे पथ्य और औषध के सेवन से रोगों का नाश करते हैं और पुरुषार्थ से धन तथा आयु का धारण करते हैं, वे बहुत सुख को प्राप्त होते हैं॥२२॥

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