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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 48
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः
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    तं त्वा॑ शोचिष्ठ दीदिवः सु॒म्नाय॑ नू॒नमी॑महे॒ सखि॑भ्यः। स नो॑ बोधि श्रु॒धी हव॑मुरु॒ष्या णो॑ अघाय॒तः सम॑स्मात्॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा शोचिष्ठ दीदिवः सुम्नाय नूनमीमहे सखिभ्यः। स नो बोधि श्रुधि हवमुरुष्या णो अघायतः समस्मात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। त्वा। शोचिष्ठ। दीदिव इति दीदिऽवः। सुम्नाय। नूनम्। ईमहे। सखिभ्य इति सखिऽभ्यः। सः। नः। बोधि। श्रुधी। हवम्। उरुष्य। नः। अघायतः। अघयत इत्यघऽयतः। समस्मात्॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 48
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    पदार्थ -
    हे (शोचिष्ठ) उत्तम गुणों से प्रकाशमान (दीदिवः) विद्यादि गुणों से शोभायुक्त विद्वन्! जो आप (नः) हम लोगों को (बोधि) बोध कराते (तम्) उन (त्वा) आप को (सुम्नाय) सुख और (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (नूनम्) निश्चय से हम लोग (ईमहे) याचते हैं (सः) सो आप (नः) हम लोगों के (हवम्) पुकारने को (श्रुधी) सुनिये और (समस्मात्) अधर्म के तुल्य गुण-कर्म-स्वभाव वाले (अघायतः) आत्मा के अपराध का आचरण करते हुए दुष्ट, डाकू, चोर, लम्पट से हमारी (उरुष्य) रक्षा कीजिये॥४८॥

    भावार्थ - विद्यार्थी लोग पढ़ाने वालों के प्रति ऐसे कहें कि आप से जो हम लोगों ने पढ़ा है, उसकी परीक्षा लीजिये और हम को दुष्ट आचरण से पृथक् रखिये, जिससे हम लोग सब के साथ मित्र के समान वर्त्ताव रक्खें॥४८॥

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