यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रादयो देवताः
छन्दः - स्वराड् विकृतिः
स्वरः - मध्यमः
4
इ॒न्द्रा॒ग्न्योः प॑क्ष॒तिः सर॑स्वत्यै॒ निप॑क्षतिर्मि॒त्रस्य॑ तृ॒तीया॒ऽपां च॑तु॒र्थी निर्ऋ॑त्यै पञ्च॒म्यग्नीषोम॑योः ष॒ष्ठी स॒र्पाणा॑ सप्त॒मी विष्णो॑रष्ट॒मी पू॒ष्णो न॑व॒मी त्वष्टु॑र्दश॒मीन्द्र॑स्यैकाद॒शी वरु॑णस्य द्वाद॒शी य॒म्यै त्र॑योद॒शी द्यावा॑पृथि॒व्योर्दक्षि॑णं पा॒र्श्वं विश्वे॑षां दे॒वाना॒मुत्त॑रम्॥५॥
स्वर सहित पद पाठइ॒न्द्रा॒ग्न्योः। प॒क्ष॒तिः। सर॑स्वत्यै। निप॑क्षति॒रि॒ति॒ निऽप॑क्षतिः। मि॒त्रस्य॑। तृ॒तीया॑। अ॒पाम्। च॒तु॒र्थी। निर्ऋ॑त्या॒ऽइति॒ निःऽऋ॑त्यै। प॒ञ्च॒मी। अ॒ग्नीषोम॑योः। ष॒ष्ठी। स॒र्पाणा॑म्। स॒प्त॒मी। विष्णोः॑। अ॒ष्ट॒मी। पू॒ष्णः। न॒व॒मी। त्वष्टुः॑। द॒श॒मी। इन्द्र॑स्य। ए॒का॒द॒शी। वरु॑णस्य। द्वा॒द॒शी। य॒म्यै। त्र॒यो॒द॒शीति॑ त्रयःऽद॒शी। द्यावा॑पृथि॒व्योः। दक्षि॑णम्। पा॒र्श्वम्। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। उत्त॑रम् ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्न्योः पक्षति सरस्वत्यै निपक्षतिर्मित्रस्य तृतीयापाञ्चतुर्थी निरृत्यै पञ्चम्यग्नीषोमयोः षष्ठी सर्पाणाँ सप्तमी विष्णोरष्टमी पूष्णो नवमी त्वष्टुर्दशमीन्द्रस्यैकादशी वरुणस्य द्वादशी यम्यै त्रयोदशी द्यावापृथव्योर्दक्षणम्पार्श्वं विश्वेषान्देवानामुत्तरम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्न्योः। पक्षतिः। सरस्वत्यै। निपक्षतिरिति निऽपक्षतिः। मित्रस्य। तृतीया। अपाम्। चतुर्थी। निर्ऋत्याऽइति निःऽऋत्यै। पञ्चमी। अग्नीषोमयोः। षष्ठी। सर्पाणाम्। सप्तमी। विष्णोः। अष्टमी। पूष्णः। नवमी। त्वष्टुः। दशमी। इन्द्रस्य। एकादशी। वरुणस्य। द्वादशी। यम्यै। त्रयोदशीति त्रयःऽदशी। द्यावापृथिव्योः। दक्षिणम्। पार्श्वम्। विश्वेषाम्। देवानाम्। उत्तरम्॥५॥
विषय - फिर किसके अर्थ कौन होती है? इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! तुम लोग जो (इन्द्राग्न्योः) पवन और अग्नि की (पक्षतिः) सब ओर से ग्रहण करने योग्य व्यवहार की मूल पहिली (सरस्वत्यै) वाणी के लिये (निपक्षतिः) निश्चित पक्ष का मूल दूसरी (मित्रस्य) मित्र की (तृतीया) तीसरी (अपाम्) जलों की (चतुर्थी) चौथी (निर्ऋत्यै) भूमि की (पञ्चमी) पांचवीं (अग्नीषोमयोः) गर्मी-सर्दी को उत्पन्न करने वाले अग्नि तथा जल की (षष्ठी) छठी (सर्पाणाम्) सांपों की (सप्तमी) सातवीं (विष्णोः) व्यापक ईश्वर की (अष्टमी) आठवीं (पूष्णः) पुष्टि करने वाले की (नवमी) नवमी (त्वष्टुः) उत्तम दिपते हुए की (दशमी) दशमी (इन्द्रस्य) जीव की (एकादशी) ग्यारहवीं (वरुणस्य) श्रेष्ठ जन की (द्वादशी) बारहवीं और (यम्यै) न्याय करने वाले की स्त्री के लिये (त्रयोदशी) तेरहवीं क्रिया है, उन सब को तथा (द्यावापृथिव्योः) प्रकाश और भूमि के (दक्षिणम्) दक्षिण (पार्श्वम्) ओर को और (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों के (उत्तरम्) उत्तर ओर को जानो॥५॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि इन उक्त पदार्थों के विशेष ज्ञान के लिये अनेक क्रियाओं को करके अपने-अपने कामों को सिद्ध करें॥५॥
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