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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 25
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता स्वराट् छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आपो॑ ह॒ यद् बृ॑ह॒तीर्विश्व॒माय॒न् गर्भं॒ दधा॑ना ज॒नय॑न्तीर॒ग्निम्। ततो॑ दे॒वाना॒ सम॑वर्त्त॒तासु॒रेकः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑। ह॒। यत्। बृ॒ह॒तीः। विश्व॑म्। आय॑न्। गर्भ॑म्। दधा॑नाः। ज॒नय॑न्तीः। अ॒ग्निम्। ततः॑। दे॒वाना॑म्। सम्। अ॒व॒र्त्त॒त॒। असुः॑। एकः॑। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो ह यद्बृहतीर्विश्वमायन्गर्भन्दधाना जनयन्तीरग्निम् । ततो देवानाँ समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आपः। ह। यत्। बृहतीः। विश्वम्। आयन्। गर्भम्। दधानाः। जनयन्तीः। अग्निम्। ततः। देवानाम्। सम्। अवर्त्तत। असुः। एकः। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 25
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    पदार्थ -
    (बृहतीः) महत् परिमाण वाली (जनयन्तीः) पृथिव्यादि को प्रकट करने हारी (यत्) जिस (विश्वम्) सब में प्रवेश किये हुए (गर्भम्) सब के मूल प्रधान को (दधानाः) धारण करती हुई (आपः) व्यापकजलों की सूक्ष्ममात्रा (आयन्) प्राप्त हों, (ततः) उससे (अग्निम्) सूर्यादि रूप अग्नि को (देवानाम्) उत्तम पृथिव्यादि पदार्थों का सम्बन्धी (एकः) एक असहाय (असुः) प्राण (सम्, अवर्त्तत) सम्यक् प्रवृत्त करे, उस (ह) ही (कस्मै) सुख के निमित्त (देवाय) उत्तम गुण युक्त ईश्वर के लिये हम लोग (हविषा) धारण करने से (विधेम) सेवा करने वाले हों॥२५॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जो स्थूल पञ्चतत्त्व दीख पड़ते हैं, उनको सूक्ष्म प्रकृति के कार्य पञ्चतन्मात्र नामक से उत्पन्न हुए जानो, जिनके बीच जो एक सूत्रात्मा वायु है, वह सब धारण करता है यह जानो, जो उस वायु के द्वारा योगाभ्यास से परमात्मा को जानना चाहो तो उसको साक्षात् जान सको॥२५॥

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