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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    क्ष॒त्रेणा॑ग्ने॒ स्वायुः सꣳर॑भस्व मि॒त्रेणा॑ग्ने मित्र॒धेये॑ यतस्व।स॒जा॒तानां॑ मध्यम॒स्थाऽ ए॑धि॒ राज्ञा॑मग्ने विह॒व्यो दीदिही॒ह॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्ष॒त्रेण॑। अ॒ग्ने॒। स्वायु॒रिति॑ सु॒ऽआयुः॑। सम्। र॒भ॒स्व॒। मि॒त्रेण॑। अ॒ग्ने॒। मि॒त्र॒धेय॒ इति॑ मित्र॒ऽधेये॑। य॒त॒स्व॒ ॥ स॒जा॒ताना॒मिति॑ सऽजा॒ताना॑म्। म॒ध्य॒म॒स्था इति॑ मध्यम॒ऽस्थाः। ए॒धि॒। राज्ञा॑म्। अ॒ग्ने॒। वि॒ह॒व्य᳖ इति॑ विऽह॒व्यः᳖। दी॒दि॒हि॒। इ॒ह ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षत्रेणाग्ने स्वायुः सँ रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधेये यतस्व । सजातानाम्मध्यमस्थाऽएधि राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    क्षत्रेण। अग्ने। स्वायुरिति सुऽआयुः। सम्। रभस्व। मित्रेण। अग्ने। मित्रधेय इति मित्रऽधेये। यतस्व॥ सजातानामिति सऽजातानाम्। मध्यमस्था इति मध्यमऽस्थाः। एधि। राज्ञाम्। अग्ने। विहव्य इति विऽहव्यः। दीदिहि। इह॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि विद्वन्! आप (इह) इस जगत् में वा राज्याधिकार में (क्षत्रेण) राज्य व धन के साथ (स्वायुः) सुन्दर युवाऽवस्था का (सम्, रभस्व) अच्छे प्रकार आरम्भ कीजिये। हे (अग्ने) विद्या और विनय से शोभायमान राजन्! (मित्रेण) धर्मात्मा विद्वान् मित्रों के साथ (मित्रधेये) मित्रों से धारण करने योग्य व्यवहार में (यतस्व) प्रयत्न कीजिये। हे (अग्ने) न्याय का प्रकाश करने हारे सभापति! (सजातानाम्) एक साथ उत्पन्न हुए बराबर की अवस्था वाले (राज्ञाम्) धर्मात्मा राजाधिराजों के बीच (मध्यमस्थाः) मध्यस्थ-वादिप्रतिवादि के साक्षि (एधि) हूजिये और (विहव्यः) विशेष कर स्तुति के योग्य हुए (दीदिहि) प्रकाशित हूजिये॥५॥

    भावार्थ - सभापति राजा सदा ब्रह्मचर्य से दीर्घायु, सत्य धर्म में प्रीति रखने वाले मन्त्रियों के साथ विचारकर्त्ता, अन्य राजाओं के साथ अच्छी सन्धि रखने वाला, पक्षपात को छोड़ न्यायाधीश सब शुभ लक्षणों से युक्त हुआ दुष्ट व्यसनों से पृथक् हो के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को धीरज, शान्ति, अप्रमाद से धीरे-धीरे सिद्ध करे॥५॥

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